दीप
मैं हूँ एक दीप
किसी आरती की थाल का
प्रज्वलित हूँ कामना
और वेदना की अग्नि से।
कामना कि –
आये कोई वीर मेरे सामने
उसकी छाती में उतर कर
दामिनी बन जाऊँ मैं
देश की रक्षा की ख़ातिर
युद्ध के मैदान में
बनके अग्नि बाण बरसूँ
क़हर बनके छाऊँ मैं।।
वेदना कि-
मैं न होता
काश एक दीपक अगर
तेज में मेरे न होती
गर्म लावों सी दहक
फिर तो वायु के थपेड़े
मुझपे न पड़ते कभी
फिर यह शत्रुता न होती
मेरे तिमिर के मध्य में
फिर न कोई चूम कर
तन मेरा होता अधमरा
फिर कलंकित मैं न होता कीट तेरे रक्त से
फिर न रख कर थाल में
मुझको घुमाता आदमी
नाम पर भगवान के
मुझसे कमाता आदमी।।
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सरफ़राज़ अहमद “आसी”