दीप हूँ मैं
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दीप हूँ मैं, मृतिका का तन हमारा।
स्नेह से गढ़ता किरण है मन हमारा।
मैं अमावस में उगाता चंद्रमा हूँ।
हर अंधेरे में तुम्हारा पूर्णिमा हूँ।
मैं जलूँ,जलने का है वरदान मुझको।
और इस कल्याण का है ज्ञान मुझको।
नाचती लौ, झूमती लौ गा रही कुछ।
सत्य बोलो क्या नहीं है भा रही कुछ!
और बाती को नमन करता हुआ मैं।
तेल का आभार मन धरता हुआ मैं।
सूर्य का अवतार लगता हूँ नहीं क्या?
तम का वैरी, यार तेरा हूँ नहीं क्या?
तुम जलोगे जब, तुम्हें गौरव मिलेगा।
बाँट देखो राख,प्राण को सौरभ मिलेगा।
ज्योति है कृति हमारी यश हमारा।
कृति कर आग्रह है ऐसा बस हमारा।
तन नहीं मन भी प्रकाशित कर सकूँ मैं।
हर अंधेरे को उद्भासित कर सकूँ मैं!
दीप हूँ मैं, मृतिका का तन हमारा।
स्नेह से गढ़ता किरण है मन हमारा।
देह इस संक्रांति-युग में धात्विक भी।
किन्तु,मन का धर्म मेरा सात्विक ही।
स्नेह का बस रूप विद्युत कण हुआ है।
रश्मि मोहक और अति सघन हुआ है।
कर्म न बदला हमारा और न कर्तव्य कोई।
हम न बदलेंगे कभी मंतव्य कोई।
पथ प्रदर्शित अब भी करता रास्ते-बिछ।
होता असीमित नभ भ्रमण मेरा ही लक्ष्य।
शांत मन से प्रज्वलित हुआ करता हूँ मैं अब।
अब नहीं भयभीत होता अंधियों से मैं गज़ब।
अब तेरा विश्वास हमपर है गुणित।
हम हुए हैं पूर्व से अति और विस्तृत।
खेलते अब रौशनी से,तम से हो निर्बंध तुम।
कैद करके पा रहे दुहरा सभी घटनाएँ तुम।
दीप ही हूँ मैं, धातु का अब तन हमारा।
औ तरंगों से गढ़ा किरण मन है हमारा।
दीप मैं प्रगति तुम्हारी साध्य मेरा।
पगडंडियाँ उज्जवल हमीं ने है उकेरा।
कुछ नहीं प्रतिदान मांगा है कभी भी।
राख भी मैंने बचाया क्या कहीं भी?
विनती बस इतनी हमारी दोस्तो!
तुम बनो साधन प्रगति का दोस्तो।
फिर हमारा तन तो ना मिल पायगा।
आत्मा का मन परंतु पास तेरे आयगा।
अलविदा इस जन्म के इस सांध्य में मेरा तुम्हें।
और सारे सुख,प्रसन्नता,तोष का हर वर तुम्हें।
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