दीप-परम्परा
” दीप-परम्परा ”
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सदियों पूर्व
तात्कालिक परिस्थितियों में
बने थे कुछ….
नियंत्रक नियम !
कुछ आवश्यक कार्यों का
नित्य पालन बना था !
परम्परा का आधार !!
तब
परम्पराऐं……
वैज्ञानिक थी,
वैधानिक थी ,
नैसर्गिक थी ,
मगर ! आज !
आज…….
युग बदला है !
सोच बदली है !
जीवन जीने का तरीका ,
पहनावे का सलीका ,
आदमी का नजरिया ,
आदमी की सोच !
सब बदला है –
और आज !
परम्परा !
महज बोझ है !
बंधन है !
असहज बेड़ी है !
तोड़ने की फिराक में हैं सब…..
क्यों कि ?
इंसान को आजादी चाहिए !
यह उनकी अपनी ,
स्वतंत्रता का हनन है !
स्वच्छन्दता का हनन है !
“दीप-परम्परा” तो !
बुजुर्आपन है !
संकीर्णता है !
मशीनी जीवन को ,
इनकी दरकार नहीं रही !
आज !
इनका कोई मूल्य नहीं ?
अति आधुनिक मानव ,
नित नई परम्परा बनाता है……
नशे की !
जुए की !
चोरी की !
पाप की !
विलासिता की !
भ्रष्टाचार की !
एकाकीपन की |
छलावे की !
मानवता के अन्त की !
और सृष्टि के अन्त की !!
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डॉ०प्रदीप कुमार “दीप”
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