दीप जलने लगे, अश्क बहने लगे
शाम जब भी ढली दीप जलने लगे
और फिर याद में अश्क़ बहने लगे
दूर करते रहे सिर पर छत की कमी
चांद तारे पराये से लगने लगे
हुस्न वालों का देखा सितम इस कदर
इश्क़ के जो थे तूफान थमने लगे
देख कर कामयाबी मेरी , हमसफ़र
साथ थे तो मगर हाथ मलने लगे
मेरी अंगुली पकड़ जो चले थे कभी
वे ही क्यों मेरे अरमां कुचलने लगे
इश्क़ के इस जहां के खुदा थे मगर
क्यों मुहब्बत की बातों से डरने लगे
©
शरद कश्यप