दीप और बाती
बन वर्तिका खुद ही जलती रही
दर्द दीप का ,तूलिका लिखती रही।
तपता रहा पूरी विभावरी जो,
लड़ता रहा खुद से ,सोचता रहा।
निशीथ संग युद्ध इस कदर वह
किस लिए तप्त हो लड़ता रहा।
पथ प्रदर्शक बनने को सदैव ही
राहें रोशन स्तंभदीप करता रहा।
क्यूँ तिल तिल यूँ अस्तित्व मेरा
मिटता रहा और मैं .मिटाता रहा…??
सुन दर्द दीप का तनिक घबराई सी
लजाई वर्तिका और धीरे मुस्काई भी।
ले अरुणिम सी आभा मुख पर
वर्तिका बोली यूँ शर्माई सी ।
प्रिय!आज बात तुम्हें समझाती हूँ।
जलते कब अकेले तुम प्रियतम
साथ अस्तित्व अपना मिटाती हूँ।
पूर्णता देने को ही तुमको साजन।
जलती पर तुम्हें ही जिलाती हूँ।
नेह धार को पी तन से पल पल
जलती मैं,नाम तेरा कर जाती हूँ।
सुन टीस वर्तिका की दीप सन्न रह गया।
माटी का तन जीवित ,वर्तिका का मिट गया।
मनोरमा जैन पाखी
भिंड मध्य प्रदेश
मोलिक,स्वरचित