दीप ऐसा जले
आधार छंद वास्त्रग्विणी
मापिनी-212 212 212 212
समान्त- आन, पदान्त-का
दीप ऐसा जले हर तरफ ज्ञान का।
दूर हो कष्ट हर एक इंसान का।
स्वर्ग भी सिर झुकाता रहा है वहाँ,
भावना नित्य रहता जहाँ दान का।
प्रेम से है बड़ा धर्म कोई नहीं,
है बसा जिस हृदय रूप भगवान का।
वृक्ष- सा दूसरा कौन दानी यहाँ,
श्रेष्ठता कब घटी त्याग बलिदान का।
ज़िन्दगी अग्नि पथ कर्म करते चलो,
धैर्य से मोड़ रुख नित्य तूफ़ान का।
विश्व कल्याण जो ज़िन्दगी दे दिया,
अर्थ मिलता उसे मान सम्मान का।
मोह माया अहंकार को त्याग दो,
कुछ जतन कीजिये स्वयं पहचान का।
-लक्ष्मी सिंह
नई दिल्ली