दीपक
चाहत है मेरी कि,मैं सिर्फ रहूँ जलता,
मेरी रूह रोशनी में , जग रहे पलता।
रौंद गया जब मैं, तब बना मिट्टी गीला,
चाक का चक्कर सहा,नहीं हुआ ढीला।
धूप सहा सूखने में, और पकने में आग,
तपा चाहे कितना, बदला ना कोई राग।
लगा बड़ा अच्छा हमें,दिखा जब मेल,
त्याग की बाती, और स्नेह का तेल।
फिर जलने की है , रूत रही जारी।
डरा नहीं मन, छाती पर आग बारी।
जला रात भर, नहीं तेल बाती हारी।
तप कर गर्म हुआ, सिर से पाँव सारी।
सहकर तपन इतना, तोड़ा नहीं विश्वास,
नहीं कर पाया कभी, नीचे अपने प्रकाश।
अब जाके समझा,इतना जलने का मजा।
उजाला देने खातिर, सहा जनम से सजा।
जलता है बहुत कुछ, खून, दिल, हूर,
फायदा उससे क्या,जब होता नहीं नूर।
सो जाते हैं सब कोई ,अकेले मैं जलता।
जग में प्रकाश करूं,तन्हाई नहीं खलता।
आंधियों ने छोड़ा नहीं,यूँ खूब बुझाया।
लेकर हाथ लक्ष्मी , हवा पंख डुलाया।
समझा जो सह लेगा , कष्ट विनाशक।
चमकेगी लौ , वही बनेगा प्रकाशक।।
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अशोक शर्मा, कुशीनगर,उ.प्र. 02.10.2021
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