दीपक
दीपक
दीपक तल में तम आश्रित कर,
जग में उजयारे को बाँटो,
प्रेम और सदभाव ज्योति में,
घृणा, द्वैष को ही तो छांटो l
तिल तिल कर तुम जलते रहते,
किन्तु धरा को करो प्रकाशित,
बिना भेद के पियो अँधेरा,
और सदा रहते अनुशाषित l
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“तमसो मा ज्योर्तिमय” जग हो,
इसको ही तो गाते रहते,
बाधायें हों पार पन्थ की,
इसको ही दुहराते रहते l
मूल भावना यह प्रकाश हो.
जैसे भी जग हो आलोकित l
क्या होता उत्सर्ग व्यर्थ,जब
सदा रहो तुम ही अनुपालित l
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साहस,शौर्य देखतें हैं जब,
शीत वायु के लगें थपेड़े,
अडिग और द्दढता के बल पर,
नई रोशनी सदा बिखेरे l
संकल्प शक्ति,उद्देश्य और,-
विश्वास सभी तुमसे परिभाषित,
जलते रहना काम तुम्हारा,
इसमें ही सच्चा समाज हित l
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अग्नि रूप, उर्जा उत्प्रेरक,
गतिमय हो ऐसा आकर्षण,
दिव्य ज्योति तुमसे आलोकित,
भूले,भटकों का पथ दर्शन l
सदा ऊर्धगामी ही रहना,
सब हो जायेंगे आकर्षित,
उन्नति पथ पर बढो सदा तुम,
इसको ही करते हो इंगित l