दीपक
“दीपक”
आज दीपक
अपनी व्यथा सुना रहा है
दिवाली में
कभी घरों की छतों पर
जगमगाता था,
अपनी किस्मत पर
वो इतराता था,
घर-आंगन हो
या हो मंदिर
उसका ही रुआब होता था,
आज चाइनीज बल्वों ने
अपना जाल बिछाया है,
घर हो या हो कोई भवन
हर जगह उसने ही
अपना वर्चस्व बनाया है,
उसकी टिमटिमाती रोशनी
सबके मन को भाया है,
गुम हो गया हूँ मैं ‘दीपक’
उसकी रोशनी में,
मेरी व्यथा कोई नहीं
समझ पाया है,
महंगाई की मार भी
मैं झेल रहा हूँ,
सस्ते होकर बिक जाता हूँ
पर महंगे घी-तेल
मुझे रुला रहा है,
अपनी अकड़ में
मुझे झुका रहा है,
पर हिम्मत नहीं
हारा हूँ मैं,
देवों का तो
आज भी प्यारा हूँ मैं,
उनका सानिध्य मैं
पाता हूँ
देवों का दुलारा हूँ मैं,
यदि छतों पर
मेरा सम्मान नहीं है,
तो भी मैं गर्वित हूँ
देवों के चरणों में
मुझको ही स्थान मिला है ।
–पूनम झा
कोटा राजस्थान