दीपक और दिया
दिया और दीपक
गाँव का सरोवर आज
शांत ,उपेक्षित और उदास ,
अपने अतीत में झांकता
जब पूरा गांव होता था पास ।
कभी उसके तट पर एक
दिव्य रौनक हुआ करती थी ,
चारों ओर दियों की कतारें और
जल में परछाई झिलमिलाती थी।
बड़ा ही मनोरम वह दृश्य
विहंगम हुआ करता था ,
बालाओं की चुहलबाजियों से
मनोज का आगमन प्रतीत था।
आज कोई एक आता है
एक छोटा सा दिया जलाता है,
और अपने कर्म की इतिश्री
आहिस्ता से कर निकल जाता है।
वहीं से वह दिया खामोश अपने
भाई दीपक को देख रहा था,
जो परधान की कोठी पर सजा
झूम कर जलता इठला रहा था।
दिये को उदास व मायूस देख
सरोवर ने खामोशी को तोड़ा,
एक लंबी आह भरी और उसे
समझाते हुए वह सरोवर बोला।
बाबू मायूस मत हो तुम
सब समय -समय की बात है,
वरना इन कोठियों की तुम्हारे
सामने क्या औकात ही है ?
हमारे ही मिट्टी से ये सब
अनवरत वर्षों बुहारे जाते थे,
आज हमी को ये आंख दिखा
इठलाते और चिढ़ाते जाते है।
तभी बारजे का दीपक जोर से
भभका और नीचे गिर बुझ गया,
बुझते हुए दीपक ने दिये से
एक मार्मिक बात कह गया।
भैया तुम सदा ऐसे ही खुश
निरंतर जलते ही रहना,
राह के पथिकों को सदा
तुम अमावस से बचाते रहना।
मैंने अपने पालक और जनक
सरोवर का माना नहीं कहना ,
घमंड में चूर होकर झूमा
मेरा तो यही हस्र ही था होना।
कोठी के बारजे पर सज
कर मैं मद में इठला रहा था ,
कमजोर नींव पर मेरा मजबूत
इमारत बनाने का प्रयास था।
पर अपने कर्तव्य से च्युत
अहंकारी मैं ज्यादा गया था ,
अंधकार के बजाय महलों
में रोशनी कर इतरा रहा था।
निर्मेष समाप्त तो हम सबको
आखिर एक दिन होना ही था ,
मिट्टी के बने पुतलो का आखिर
एक दिन मिट्टी में ही तो मिलना था।
निर्मेष