“दिशाहीन होती युवापीढ़ी” एक विश्लेषणात्मक अध्ययन
जब किसी के ह्रदय की वेदना अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाती है तो साधारण व्यक्ति हो या कितना भी गंभीर इंसान ही क्यों न हो हर कोई अपनी अभिव्यक्ति प्रकट करने के लिए आतुर हो जाता है, और यही मेरे साथ भी हुआ है | आज जब मैं युवाओं को देखता हूँ तो देश और उनके भविष्य को सोचकर मन सिहर उठता है |
आँखों में उम्मीद के सपने, नयी उड़ान भरता हुआ मन, कुछ कर दिखाने का दमखम और दुनिया को अपनी मुट्ठी में करने का साहस रखने वाला युवा कहा जाता है। युवा शब्द ही मन में उडान और उमंग पैदा करता है। उम्र का यही वह दौर है जब न केवल उस युवा के बल्कि उसके राष्ट्र का भविष्य तय किया जा सकता है। आज के भारत को युवा भारत कहा जाता है क्योंकि हमारे देश में असम्भव को संभव में बदलने वाले युवाओं की संख्या सर्वाधिक है। आंकड़ों के अनुसार भारत की 65 प्रतिशत जनसंख्या 35 वर्ष आयु तक के युवकों की और 25 साल उम्रं के नौजवानों की संख्या 50 प्रतिशत से भी अधिक है। ऐसे में यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि क्या हमारी युवापीढ़ी दिशाहीन हो रही है ? महत्वपूर्ण इसलिए भी यदि युवा शक्ति का सही दिशा में उपयोग न किया जाए तो इनका जरा सा भी भटकाव राष्ट्र के भविष्य को अनिश्चित कर सकता है।
आज का एक सत्य यह भी है कि युवा बहुत मनमानी करते हैं और किसी की सुनते नहीं। दिशाहीनता की इस स्थिति में युवाओं की ऊर्जाओं का नकारात्मक दिशाओं की ओर मार्गान्तरण व भटकाव होता जा रहा है। लक्ष्यहीनता के माहौल ने युवाओं को इतना दिग्भ्रमित करके रख दिया है कि उन्हें सूझ ही नहीं रहा है कि करना क्या है, हो क्या रहा है, और आखिर उनका होगा क्या? आज से दो-तीन दशक पूर्व तक साधन-सुविधाओं से दूर रहकर पढ़ाई करने वाले बच्चों में ‘सुखार्थिन कुतो विद्या, विद्यार्थिन कुतो सुखम्’ के भावों के साथ जीवन निर्माण की परंपरा बनी हुई थी। और ऐसे में जो पीढ़ियाँ हाल के वर्षों में नाम कमा पायी हैं, वैसा शायद अब संभव नहीं।
आज जब मैं समाज की स्थिति और उसकी संस्कृति एवं परम्परा तथा संस्कारों की ओर ध्यान देता हूँ तो, अनायास ही मैं अतीत में चला जाता हूँ | उस समय इतनी चकाचौंध करने वाली तमाम (आकर्षण पूर्ण) सुविधाएँ न थी | हालांकि उस समय इतनी उच्च स्तर की शिक्षा और शिक्षण संस्थाएं भी नहीं थी किन्तु नि:संदेह बच्चों में संस्कार था | बच्चे अपने माता-पिता ही नहीं बल्कि पड़ोसियों की भी इज्जत और आदर करते थे | यही नहीं कहीं गलती से रास्ते में कोई बूढ़ा या असहाय दिख जाता थो तो पक्का उसकी मदद करते थे | तब और अब में इतना अंतर क्यों हुआ, जब मैने इसका कारण जानने की कोशिश की तो लोग कहते मिले, कि ज़माना बदल गया है “शर्माजी” ! क्या संस्कार को भूल जाना ही विकास है ? क्या आज की नई पीढ़ी माता-पिता का तिरस्कार या उनकी अवहेलना करके उनकी बातें न मानने में ही अपना विकास समझ रही है ? यदि ऐसा है तो मेरे विचार से यह पूर्णतया गलत है क्योंकि बिना माता-पिता के आशीष के तो भगवान् भी किसी का साथ नहीं देता | अक्सर देखने को मिलता है, कि बच्चों को उत्तम सुविधाएं प्रदान करने के लिए माता-पिता अपने लिए सारी चीजों का त्याग करके दिन रात कठिन से कठिन काम करते हैं | उनकी इच्छा होती है कि जो कुछ भी अभाव उन्होंने अपने जीवन में सहा है उनके बच्चों को वह न झेलना पड़े | किन्तु आज की युवापीढ़ी उनके त्याग और श्रम को महत्व न देते हुए तब हद पार कर देती है जब वे माता-पिता के द्वारा किये जाने वाले कामों को यह कहकर याद दिलाते हैं, कि जो आप कर रहे हैं वो तो आपका फ़र्ज है |
कृष्ण कुमार शर्मा