दिव्य भाव
दिव्य भाव (पंचचामर छंद )
सुखी सदा दुखी नहीं जहां पवित्र भाव है।
सदैव दिव्य संपदा जहां सुधा स्वभाव है।
चलो सदैव लोक पार द्वार दिव्य है खड़ा।
प्रयास हो सदैव पार लोक मर्म है बड़ा।
करो सहर्ष वंदना सदैव पार्थ भाव से।
मिले जरूर दिव्य दृष्टि कृष्ण के प्रभाव से।
भविष्य वर्तमान भूत साफ साफ जान लो।
अहैतुकी कृपा अमूल्य का रहस्य मान लो।
जहां न दिव्य भाव है वहाँ कहीं न पार्थ है।
सदैव लोक दृष्टि में सजीव मात्र स्वार्थ है।
दिखे सदेह देव लोक हो विकास दृष्टि का।
रहे पवित्र भाव पक्ष दिव्य दृष्टि सृष्टि का।
सचेत देव पक्ष का प्रचार हो प्रसार हो।
सदैव देव यज्ञ भूमि लोक का विचार हो।
रहे समूल त्याग भाव लोक वृत्ति त्यागना।
परार्थ धर्म योग में सप्रेम नित्य जागना।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।