दिव्यांग
एक गीत…..दिव्यांग के मन के भाव !
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“दिव्यांग”
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देखा सूरज उगता ढलता ,
चंदा देखा नभ में चलता ,
तो सोचा भावों के बलपर ,
अपनी मंजिल पा लूँगी मैं ।
पर हार नहीं मानूँगी मैं ।।
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नौका बेशक टूटी मेरी ,
तूफानों ने भी है घेरी ,
कब तक हिलोर सह पायेगी ,
कैसे मंजिल तक जायेगी ,
मन में फिर भी विश्वास यही ,
अपने तट को छू लूँगी मैं ।
पर हार नहीं मानूँगी मैं ।।1||
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हर जीवन एक फसाना है ,
सबको आना फिर जाना है ,
मिलती नफरत भी प्रीति यहीं ,
होती सदैव ही जीत नहीं ,
जैसी करनी वैसी भरनी ,
कर्मों को पहचानूँगी मैं ।
पर हार नहीं मानूँगी मैं ।।2||
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देखो मेरी मजबूरी को ,
मंजिल से मेरी दूरी को ,
सत्कर्म करूँ इच्छा मेरी ,
पर विधना ने नजरें फेरीं ,
अब कहा गया दिव्यांग मुझे ,
मैं दिव्य बनूँ ठानूँगी मैं ।
पर हार नहीं मानूँगी मैं ।।3||
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सब अपना धर्म निभाते हैं ,
हम कर्म भोगने आते हैं ,
क्या कर्म फला है याद नहीं ,
क्यों करूँ कभी फरियाद कहीं ,
मेरा सूरज हाथों में है ,
उजियारा फैलाऊँगी मैं ।
पर हार नहीं मानूँगी मैं ।।4||
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महेश जैन ‘ज्योति’,
मथुरा ।
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