दिव्यांग वीर सिपाही की व्यथा
मै था भारत देश का,वीर सिपाही एक।
पर मेरी मजबूरियाँ,लगा रहीं हैं टेक।।
कभी देश के वास्ते,खूब लड़ा था जंग।
मगर हाल मेरा अभी,ज्यों टूटी हुई पतंग।।
धूम मचाया युद्ध में,देख शत्रु था दंग।
रिपु पर पाया था विजय,हुआ अंग पर भंग।।
लाँघ हिमालय शत्रु फिर, बढ़ा दिया है टीस।
शांत रहूँ मैं किस तरह,उठी हृदय में खीस।।
सरहद पर रिपु है खड़ा,बढ़ा रहा है पीर।
इस दुस्साहस पर बता,कैसे धर लूँ धीर।।
सो जाऊँ मैं किस तरह,खतरे में है देश।
दुश्मन घर में घूसकर,फैला रहे कलेश।।
कान बंद कैसे करूँ,भारत रहा पुकार।
तिलक योग्य वह शीश है, जिस पर हुआ प्रहार।।
देश भक्ति की भावना,फिर ले रही हिलोर।
धूल चटा दूँ शत्रु को,रखदूँ गला मरोड़।।
एक बार आदेश दो,जाऊँ सरहद पार।
सबक सिखाऊँ शत्रु को,लूँ ऐसा अवतार।।
-लक्ष्मी सिंह