दिव्यांग क्रांतिवीर चारुचंद्र बोस
दिव्यांग क्रांतिवीर चारुचंद्र बोस
बंगाल के क्रांतिकारियों की निगाह में अलीपुर का सरकारी वकील आशुतोष विश्वास बहुत समय से खटक रहा था। देशभक्तों को पकड़वाने, उन पर झूठे मुकदमे लादने तथा फिर उन्हें कड़ी सजा दिलवाने में वह अपनी कानूनी बुद्धि का पूरा उपयोग कर रहा था। ब्रिटिश शासन के लिए वह एक पुष्प था, जबकि क्रांतिकारी उस कांटे को शीघ्र ही अपने मार्ग से हटाना चाहते थेे।
आशुतोष विश्वास यह जानता था कि क्रांतिकारी उसके पीछे पड़े हैं, अतः वह हर समय बहुत सावधान रहता था। वह प्रायः भीड़ से दूर ही रहकर चलता था। उसे उठाकर पटकने में सक्षम कोई हृष्ट-पुष्ट युवक यदि उसके पास से निकलता, तो वह दूर हट जाता था। वह रात में कभी अपने घर से नहीं निकलता था और अपरिचित लोगों से बिल्कुल नहीं मिलता था।
दूसरी ओर चारुचंद्र बोस नामक एक युवक था, जो आशुतोष को मजा चखाना चाहता था। ईश्वर ने चारुचंद्र के साथ बहुत अन्याय किया था। वह जन्म से ही अपंग था। उसके दाहिने हाथ में कलाई से आगे हथेली और उंगलियां नहीं थीं। दुबला-पतला होने के कारण चलते समय लगता था मानो वह अभी गिर पड़ेगा। उसके माता-पिता का भी देहांत हो चुका था।
इस पर भी चारुचंद्र साहसपूर्वक छापेखानों में काम कर पेट भर रहा था। उसने एक ही हाथ से काम करने की कला विकसित कर ली थी। इसके साथ ही उसके मन में देश के लिए कुछ करने की तड़प भी विद्यमान थी। उसे लगा कि आशुतोष विश्वास को यमलोक पहुंचाकर वह देश की सेवा कर सकता है। उसने कहीं से एक पिस्तौल का प्रबंध किया और जंगल में जाकर निशाना लगाने का अभ्यास करने लगा। धीरे-धीरे उसका आत्मविश्वास बढ़ता गया और अंततः उसने अपने संकल्प की पूर्ति का निश्चय कर लिया।
10 फरवरी, 1909 को चारुचंद्र अलीपुर के न्यायालय में जा पहुंचा। आशुतोष विश्वास हर दिन की तरह आज भी जैसे ही न्यायालय से बाहर निकला, चारुचंद्र की पिस्तौल से निकली गोली उसके शरीर में घुस गयी। उसने मुड़कर देखा, तो पतला-दुबला चारुचंद्र उसके सामने था।
आशुतोष ‘‘अरे बाप रे’’ कहकर घायल अवस्था में वहां से भागा; पर चारुचंद्र को तो अपना काम पूरा करना था। उसने एक ही छलांग में अपने शिकार को दबोचकर बिल्कुल पास से एक गोली और दाग दी। आशुतोष विश्वास वहीं ढेर हो गया।
चारुचंद्र ने इसके लिए बड़ी बुद्धिमत्ता से काम लिया था। अपने विकलांग हाथ पर रस्सी से पिस्तौल को अच्छी तरह बांधकर वह बायें हाथ से उसका घोड़ा दबा रहा था। जब पुलिस वालों ने उसे पकड़ा, तो उसने झटके से स्वयं को छुड़ाकर उन पर भी गोली चला दी; पर इस बार उसका निशाना चूक गया और कई पुलिसकर्मियों ने मिलकर उसे गिरफ्तार कर लिया।
पुलिसकर्मियों ने लातों, मुक्कों और डंडों से वहीं उसे बहुत मारा-पीटा; पर उसके चेहरे पर लक्ष्यपूर्ति की मुस्कान विद्यमान थी। न्यायालय में उस पर हत्या का मुकदमा चलाया गया। उसने बचने का कोई प्रयास नहीं किया। एक स्थितप्रज्ञ की तरह वह सारी कार्यवाही को देखता था, मानो वह अभियुक्त न होकर कोई दर्शक मात्र था। न्यायालय ने उसे मृत्यु दंड सुना दिया।
19 मार्च, 1909 को अलीपुर केन्द्रीय कारागार में उसने विजयी भाव से फंदा स्वयं गले में डाल लिया। उसके चेहरे पर आज भी वैसी ही मुस्कान तैर रही थी, जैसी देशद्रोही को मृत्युदंड देते समय थी। उसने सिद्ध कर दिया कि विकलांगता शुभ संकल्पों को पूरा करने में कभी बाधक नहीं होती।