दिवाली है
दिवाली है
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बढ़ते रहना जीवन में ,सुख दुःख से यारी है
गरीब का आटा गीला , बढ़ती अनंत दुश्वारी है।
दिन में अंधेरा छा रहा
हाथ भी मेरे खाली हैं,
बेटा भी बीमार रहा
बिटिया देह उघारी है,
माथे के ऊपर बैठी , पुरानी देनदारी है ।
खत्म हो गया सारा माल
जीवन भर में जोड़ा था ,
पत्नि के इलाज में मैंने
दिल्ली मुंबई न छोड़ा था,
दस दिन बाद दिवाली है ,पत्नि पीड़ा से हारी है।
जो दहेज बाबुल दिए
गहने बर्तन बेच दिए ,
डाक्टर फीस दवाखाना
हाड़ से मांस नोच लिए ,
कर्जे पर कर्जा बैठा , कैसे चुके उधारी है।
अपना ! पराया हो गया
दीन बेटा बड़ा हो गया ,
खेल कूद सब भूल गया
किताब छोड़ श्रम को गया,
दूध घी से रिश्ता टूटा , पालक की लाचारी है।
सिकमी रख कुआं खुदाया
जल देवता फिर नहीं आया,
फूल फसल सूखा खाया
ईश्वर को तरस न आया ,
बची फसल को पशुओं से , कौन करे रखवारी है।
गरीब का आटा गीला , बढ़ती अनंत दुश्वारी है।।
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स्वरचित एवं मौलिक
शेख जाफर खान