दिल
दिल
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हम सबके पास ही तो
एक प्यारा सा खूबसूरत दिल है,
पर लगता है कि अपने ही दिल का
हमें कोई मोह ही अब नहीं है।
तभी तो हम पत्थर दिल हो गये हैं,
अपने ही दिल की धड़कन नहीं सुन रहे हैं
अपने ही दिल को तोड़ रहे हैं,
खून के आंसू रुला रहे हैं
इंसान कम जानवर ज्यादा लग रहे हैं।
क्योंकि इंसानों सा व्यवहार
अब हम कहां कर रहे हैं?
अपने खान पान का न कुछ ख्याल कर रहे हैं,
जान बूझ कर अपनी जान दे रहे हैं
और दोष दिल के मत्थे मढ़ रहे हैं।
अपनी कार्य संस्कृति को हम
किस ढर्रे पर ले जा रहे हैं,
दिल की हालत का न हम आंकलन कर रहे हैं
आपाधापी और अधिक पाने की तृष्णा में
हम अपने ही दिल को बीमार कर रहे हैं
नाज़ुक दिल को मशीन मान रहे हैं
उसके स्वास्थ्य पर कुठाराघात कर रहे हैं
जिसका दुष्परिणाम हम खुद भुगत रहे हैं
पर दिल की कराह को नहीं सुन रहे हैं
या शायद हम बहरे हो गये हैं,
दिल को शरीर का सबसे नाजुक हिस्सा नहीं
बेजान पत्थर समझ रहे हैं।
सुधीर श्रीवास्तव गोण्डा उत्तर प्रदेश