दिल में बसाना नहीं चाहता
किसी से दिल अपना लगाना नहीं चाहता
किसी को भी दिल में बसाना नहीं चाहता
इस मुहब्बत ने बहुत ही रूलाया है हमें
कई दर्द ए गम देकर सताया है हमें
अब प्यार की पैंगे बढ़ाना नहीं चाहता
किसी को भी दिल में बसाना नहीं चाहता
अपना कहते हैं पर अपना समझते नहीं
मिलन की फरियाद जो कभी भी करते नहीं
ऐसे लोगों के घर जाना नहीं चाहता
किसी को भी दिल में बसाना नहीं चाहता
खुद को समझते हैं खुदा वो समझते रहें
अपनी अमीरी रुतबे का दम भरते रहें
अभिमानी से रिश्ता निभाना नहीं चाहता
किसी को भी दिल में बसाना नहीं चाहता
मुहब्बत करके बस दिल को जलाते हैं वो
अपनी आदतों से कब बाज आते हैं वो
मैं बार- बार धोखा खाना नहीं चाहता
किसी को भी दिल में बसाना नहीं चाहता
हमें प्यार करके कई सारे गम मिले हैं
हमें चाहनें वाले बहुत ही कम मिले हैं
बुझी हुई आग फिर जलाना नहीं चाहता
किसी को भी दिल में बसाना नहीं चाहता
सुकून की तलाश में दर- दर भटकता रहा
भला बनकर भी दिलों में मैं खटकता रहा
विरह में फिर आँसू बहाना नहीं चाहता
किसी को भी दिल में बसाना नहीं चाहता
वादा करते हैं मगर कभी निभाते नहीं
अपनी बात से मुकर कर भी लजाते नहीं
झूठ- मूठ के रिश्ते बनाना नहीं चाहता
किसी को भी दिल में बसाना नहीं चाहता
झूठे रिश्तों से मैं तन्हा- अकेला ही सही
जहर जैसे प्रेम से तो करेला ही सही
आँसुओं से दामन भिगाना नहीं चाहता
किसी को भी दिल में बसाना नहीं चाहता
-स्वरचित मौलिक रचना-राम जी तिवारी “राम”
उन्नाव (उत्तर प्रदेश)