दिल में कुण्ठित होती नारी
#दिनांक:-5/12/2023
#शीर्षक:-दिल में कुण्ठित होती नारी।
नई नवेली दुल्हन बनकर आयी थी मैं,
अरमानों का पिटारा साथ में प्रेम संगम,
शुरूआत उत्सव जैसा महसूस हुआ मेरा जीवन,
झूम-झूमकर नाचती ख्वाहिशें, मोरनी जैसी उपवन में,
खुले आसमान जैसे थे मेरे प्रिय साजन,
चहक उठी मैं प्रिय के घर-आंगन में,
सास-ससुर लगे दिल को भावन,
प्यारी ननद बड़ी चोख लुभावन,
समय समसामयिक खुशी मनभावन ।
समय की गाड़ी दिखती नहीं पर गतिमान है,
छिन्न-भिन्न होता कुछ समय के बाद अरमान है,
टूटते भ्रम दर्द बहुत चोटिल स्वाभिमान है,
टूटती कतरा-कतरा ख्वाहिशें, अपना मान है ,
आँखों में पानी तो दिल में भयंकर उठता तूफान है ,
बदल गया समय!
बदलाव ही समय की मांग है!
कल तलक थी दुल्हन, आज जिम्मेदारी का अभियान है,
पर फिर भी रूष्ट होता सारा घर जहान है।
मुस्कुराती है जबकि,
दिल में कुण्ठित होती नारी,
महान है।
(स्वरचित)
प्रतिभा पाण्डेय “प्रति”
चेन्नई