“दिल दे तो इस मिजाज का परवरदिगार दे, जो गम की घड़ी भी खुशी स
“दिल दे तो इस मिजाज का परवरदिगार दे, जो गम की घड़ी भी खुशी से गुजा़र दे।”
आज भगत सिंह की 115वी जयंती पर उनके जीवन से जुड़े कुछ अंश: जो हर समय हमें यह प्रतीत कराते हैं कि इतनी कम उम्र में भी इस शख्सियत में वतन के लिए किस हद तक कर गुजरने का जुनून था। भगत सिंह हमारे देश के उन शहीदों में से एक है जो हर नौजवान के लिए उसका आदर्श बने हुए हैं। उन्हें अपनी जिंदगी में होने वाली हर प्रताड़ना का पता होते हुए भी वह निडरता से प्रताड़ित होकर इसका सामना करते रहे। ऐसे वीर शहीदों को जितना याद किया जाए कम है।
माॅं विद्यावती के लाडले और दादी जयकौर ने अपने पोते का नाम भागांवाला रखा था, क्योंकि उस दिन 28 सितंबर 1960 को उनके पिता किशन सिंह और चाचा अजीत सिंह जेल से रिहा हुए थे। जिसकी वजह से मिलता जुलता नाम रखा गया “भगत सिंह”उनके दादा अर्जुन सिंह ‘गदर पार्टी आंदोलन’ से जुड़े रहे, उनके पिता लाल किशन सिंह लाला लाजपत राय के साथ अंग्रेजों से लोहा लेते रहे। चाचा अजीत सिंह से भी देश हित के संस्कार मिले, जिन्होंने किसानों से वसूले जाने वाले लगान को हटाने के लिए ‘पगड़ी संभाल जट्टा’ आंदोलन चलाया। ‘शहीद करतार सिंह सराबा’ को आदर्श मानकर उनकी फोटो हमेशा भगत सिंह अपने पास रखते थे।
28 सितंबर 1907 को जिला लायलपुर (अब फैसलाबाद पाकिस्तान में) के गाॅंव बावली में जन्मे ‘शहीद ए आज़म भगत सिंह’ अपने चार भाइयों तथा तीन बहनों में दूसरे नंबर के थे। भगत सिंह के पिता चाचा अजीत सिंह और स्वर्ण सिंह स्वतंत्रता सेनानी थे। भगत सिंह की पढ़ाई लाहौर के डीएवी हाई स्कूल में हुई 1919 में जब गांधी जी की अगुवाई में असहयोग आंदोलन हुआ, तब भगत सिंह सातवीं कक्षा में थे। 15 साल की उम्र में ही वह गुप्त क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेने लगे थे। भगत सिंह का जन्म उस जाट परिवार में हुआ था जो पहले से ही ब्रिटिश राज के खिलाफ क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल था। 12 साल के भगत सिंह पर इस सामूहिक हत्याकांड का गहरा असर पड़ा उन्होंने जलियांवाला बाग के रक्त रंजित धरती की कसम खाई कि अंग्रेजी सरकार के खिलाफ आजादी बिगुल फुकेंगे। उन्होंने लाहौर नेशनल कॉलेज की पढ़ाई छोड़कर ‘नौजवान भारत सभा’ की स्थापना कर डाली। भगत सिंह का ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का नारा काफी प्रसिद्ध हुआ वह हर भाषण और लेख में इसका जिक्र करते थे।
भगत सिंह ब्रिटिश सरकार की मजदूर विरोधी नीति से नाराज थे, और इसे केंद्रीय असेंबली में पारित नहीं होने देना चाहते थे। सरकार को चेतावनी देने और सरकार तक अपनी आवाज पहुंचाने के मकसद से ही उन्होंने 8 अप्रैल 1929 को बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर असेंबली में बम फेंका था। उन्होंने इस बात का भी ध्यान रखा की घटना से कोई घायल ना हो इसीलिए बम खाली जगह फेंका गया, पूरा हॉल धुएं से भर गया था वह चाहते तो भाग भी सकते थे पर उन्होंने खुद को गिरफ्तार करवाना बेहतर समझा ‘इंकलाब जिंदाबाद, साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’ के नारे भी लगाए और अपने हाथ में लाए हुए पर्चे हवा में उछाल दिए कुछ ही देर बाद पुलिस ने दोनों को गिरफ्तार कर लिया। भगत सिंह ने जेल में एक डायरी लिखी इसके पेज नंबर 43 पर उन्होंने मानव और मानव जाति के विषय में लिखा है ‘मैं इंसान हूं और मानव जाति को प्रभावित करने वाली हर चीज से मेरा सरोकार है’ भगत सिंह नाम बदलकर लेख भेजने थे। भगत सिंह के एक लेख सामतवाला के कुछ अंश देखिए: जो 16 मई 1926 में बलवंत सिंह के नाम से छापा था ‘अगर रक्त की भेंट चाहिए तो सिवा युवकों के कौन देगा अगर तुम बलिदान चाहते हो तो तुम्हें युवको की ओर देखना पड़ेगा’। मॉडर्न रिव्यू के संपादन के नाम पत्र दिसंबर 1929 के एक लेख के जवाब में भगत सिंह ने लिखा था ‘बम इंकलाब नहीं लाते बल्कि इंकलाब की तलवार विचारों की शान पर तेज होती है’। क्रांति या इंकलाब का अर्थ अनिवार्य रूप में सशस्त्र आंदोलन नहीं होता है।
22 मार्च 1931 को लिखा अंतिम पत्र में लिखते हैं कि स्वाभाविक है की जीने की इच्छा मुझ में भी होनी चाहिए, जिसे मैं छुपाना नहीं चाहता, लेकिन मैं कैद या पाबंद होकर जीना नहीं चाहता। लेकिन दिलेराना- ढंग से हंसते-हंसते मेरे फांसी चढ़ने की सूरत में हिंदुस्तानी माताएं अपने बच्चों के भगत सिंह बनने की आरजू किया करेंगी और देश के लिए कुर्बानी देने वालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी की क्रांति को रोकना साम्राज्यवाद या तमाम शक्तियों के बूते की बात नहीं रहेगी, बस यह अफसोस रहेगा कि मानवता के लिए जो कुछ करने की हसरतें मेरे दिल में थी उनका ‘हजारवां भाग’ भी पूरा नहीं कर सका।
भगत सिंह स्वतंत्रता सेनानी बटुकेश्वर के प्रशंसक थे। बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह लाहौर सेंट्रल जेल में कैद थे बटुकेश्वर के लाहौर जेल में दूसरी जगह शिफ्ट होने के चार दिन पहले भगत सिंह उनसे जेल के सेल नंबर 137 में मिलने गए थे यह तारीख थी 12 जुलाई 1930 और उसी दिन उन्होंने बटुकेश्वर दत्त का एक ओटोग्राफ लिया था।
फांसी से पहले भगत सिंह आखिरी बार अपनी माॅं से मिले थे। तब उन्होंने अपनी माॅं विद्यावती से कहा था कि मेरा शव लेने आप नहीं आना और कुलवीर (छोटा भाई )को भेज देना, क्योंकि आप आयेंगी तो रो पड़ेगी और मैं नहीं चाहता कि लोग यह कहे की भगत सिंह की माॅं रो रही है।
23 मार्च 1931 को शाम 7:33 पर ब्रिटिश सरकार ने भगत सिंह में उनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु को भी फांसी दे दी। फांसी 24 मार्च 1931 को दी जानी थी लेकिन ब्रिटिश सरकार माहौल बिगड़ने के डर से नियमों को दरकिनार कर एक रात पहले ही तीनों क्रांतिकारियों को चुपचाप लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी पर चढ़ा दिया गया। इतिहासकारों की माने तो शवों के टुकड़े करने के बाद अंग्रेज उन्हें सतलुज के किनारे स्थित हुसैनी वाला के पास ले गए थे। जब उन्हें अमान्य तरीके से जलाया जा रहा था तो वहां इस दौरान लाला लाजपत राय की बेटी पार्वती देवी और भगत सिंह की बहन बीबी अमरकोट सहित हजारों की संख्या में लोग पहुंच गए थे, जिसके चलते मौजूद अंग्रेज पुलिसकर्मी शवों को अधजला छोड़कर भाग गए थे। भगत सिंह चाहते थे कि उन्हें सैनिक जैसी शहादत देते हुए गोली मार दी जाए वह फांसी के फंदे पर भी नहीं झूलना चाहते थे यह बात उनके 20 मार्च 1931 को पंजाब के गवर्नर (शिमला )को लिखे पत्र से पता चलती है।
आखिरी शेर जो भगत सिंह ने 3 मार्च 1931 को अपने भाई को लिखा
उसे यह फिक्र है हरदम नया तर्ज़ -दफा क्या है।
हमें यह शौक है देखें सितम की इंतहा क्या है।