दिल तुम्हें महबूबा कहता है
तुम्हे दिलरुबा कहता है, कभी महबूबा कहता है
ये दिल तुम्हारी हर इक बात पे मरहबा कहता है
गुमसुम गुमसुम रहता है बंजारा ना होश में रहता है
वो जो कुछ भी सहता है इश्क़ में, बेचारा कहता है
इक दिवाना फ़िरता है मारा मारा,बेसहारा फ़िरता है
तुम्हें चाँद कहता है ,कभी आँखों का तारा कहता है
है मीलों दूर तुमसे नज़दीकियां समझता है दरमियाँ
वो ठंडी हवा सा बहते हुए, तुम्हें अपनी जाँ कहता है
तुम्हारें दिल में क्या है उसके लिए तुम भी बयाँ करो
कभी ख़ुद को बेहया करो वो ख़ुद को बेहया कहता है
तुम कभी उसे अपना नहीं कहते, अज़नबी कहते हो
फ़िर भी जाने क्यूं उसका तो ज़र्रा ज़र्रा …………. है
~अजय “अग्यार