दिल क्यूँ उसका अभ्यस्त हुआ…
दिल क्यूँ उसका अभ्यस्त हुआ
हर पल जो खुद में व्यस्त हुआ
हों आँख में तेरी अश्क तो क्या
वो सुख में अपने मदमस्त हुआ
रची थी जतन से प्रेम की नगरी
बसने का ख्बाब ही ध्वस्त हुआ
दिनभर खटा श्रमिक सा-सूरज
पगार लिए बिना ही अस्त हुआ
चाहत का भोला चाँद गगन में
तनहा चलते-चलते पस्त हुआ
डूब स्वार्थ-लोभ के नद में इन्सां
कैसा बेखबर औ अलमस्त हुआ
बस काम से अपने काम सबको
जिसे भी देखो मौकापरस्त हुआ
भड़की जब-जब दबी चिनगारी
पल भर में जल सब ध्वस्त हुआ
लाँघी जब भी ‘सीमा’ किसी ने
कुछ न हासिल, मन त्रस्त हुआ
चीर के बदरा चमकी जो चपला
दुखी मन कुछ-कुछ आश्वस्त हुआ
—© डॉ. सीमा अग्रवाल —
“संरचना” से