दिल के हो पार चली
प्रेम जब बयार चली
दिल के हो पार चली
देखता ही रह गया मैं
सीना कर चीर चली
नजर से नजर मिली
नजर ना टिक सकी
नेस्तनाबूद कर दिया
कायनात पर हुस्नपरी
था मैं आजाद परिंदा
दिल में कैद कर चली
अब तक बेफिक्रा था
फिक्र में वो कर चली
दिल शांत,शालीन था
हसरतें जगा वो चली
तुषार सा शीत था मैं
आगजनी कर थी चली
अंजान राह का पथिक
मंजिल वो दिखा चली
मेनका सी थी हूर परी
विश्वामित्र बना थी चली
स्वप्न या थी हकीकत
मस्ताना बना थी चली
मनमौजी,रहूँ मैं घूमता
प्रेम बंधन में बांध चली
फूलों सी खुशबू दे कर
काँटों में थी छोड़ चली
कहाँ से आई,कहाँ गई
नहीं कुछ बता थी चली
ताकते हैं राह अब तक
अकेला थी छोड़ चली
सुखविंद्र सिंह मनसीरत