दिल्ली मुझसे बहुत दूर है
मैं दिल्ली से दूर नहीं, पर, दिल्ली मुझसे बहुत दूर है।
समझ नहीं पाता मैं इसमें मेरा अपना क्या कसूर है।।
देख रहा हूँ बहुत समय से
जो दिल्ली आता जाता है।
धनकुबेर बनने की विद्या
सीख वहाँ से वह आता है।।
मान चतुर्दिक मिलता उसको जनजन कहता हुआ सूर है।
मैं दिल्ली से दूर नहीं, पर, दिल्ली मुझसे बहुत दूर है।।
दिल्ली में तंदूर धधकते,
दिल्ली में हत्या होती है।
बहुतेरे हैं वक्ष पीटते,
कोई आँख नहीं रोती है।।
भारतमाता के सेवक का दिल्ली लेती छीन नूर है।
मैं दिल्ली से दूर नहीं, पर, दिल्ली मुझसे बहुत दूर है।।
दिल्ली में ही लालकिला है,
दिल्ली में ही राजघाट है।
दिल्ली में ही संसद अपनी,
नेताओं का ठाठबाट है।।
नीयत बेच खरीदी जाती सत्ता सबके लिए हूर है।
मैं दिल्ली से दूर नहीं, पर, दिल्ली मुझसे बहुत दूर है।।
दिल्ली दंश बाढ़ का सहती,
साँस प्रदूषण में लेती है।
जो दिल से दिल्ली के होते,
दिल्ली उन्हें दाॅंव देती है।।
दिल्लीवासी के सब सपने दिल्ली करती चूरचूर है ।
मैं दिल्ली से दूर नहीं, पर, दिल्ली मुझसे बहुत दूर है।।
© – महेश चन्द्र त्रिपाठी