दिल्ली के दरबारों में
डाले झोला घूम रहे जो ,सत्ता के गलियारों में।
उनका सपना पहुँच बने बस,दिल्ली के दरबारों में।
भूखी नंगे जन को देना,वाणी उनका काम नहीं।
बैठे बैठे वे सिर पीटें, छपा कहीं यदि नाम नहीं।
वे तो केवल चाह रहे यह,छपें रोज अखबारों में।।
डाले झोला घूम रहे जो ……..
चरण वंदना उनकी आदत, आगे पीछे घूम रहे।
चाटुकारिता कर वे सबकी,मात्र नशे में झूम रहे।
पद पैसा सम्मान चाहते,रोज करें गड़बड़ झाला।
ऐसे लोगों से कविता का, भला नहीं होने वाला।
कौन करेगा गणना इनकी,सूरज चाँद सितारों में।।
झोला डाले झूम रहे जो……..
सत्ता को फटकार लगाएँ, उनकी ये औकात नहीं।
जनता को सब सत्य बताना,उनके बस की बात नहीं।
सत्ता को खुश करने की ही,कोशिश उनकी रहती है।
शोषित वंचित की बात कभी,उनकी कलम न कहती है।
उनके अक्षर नहीं बदलते, मित्र कभी अंगारों में।।
झोला डाले घूम रहे जो…….
डाॅ. बिपिन पाण्डेय