दास्ताने-कुर्ता पैजामा [ व्यंग्य ]
काफी दिनों से खादी का कुर्ता-पजामा बनवाने की प्रबल इच्छा हो रही है। इसके कुछ विशेष कारण भी है, एक तो भारतीय-बोध से जुड़ना चाहता हूं, दूसरे टेरीकाट के कपड़े पहनते-पहनते जी भी ऊब गया है।
सच कहूं, मैं आपसे सरासर झूठ बोल रहा हूं | दरअसल अब मेरी जेब में इतना पैसा ही नहीं है कि टेरीकोट के नये कपड़े सिलवा सकूं, अगर हैं भी तो उससे अपनी अपेक्षा बच्चों के लिए यह सब ज्यादा आवश्यक समझता हूं, क्या करूं? बच्चे टेरीकाट पहने बिना कालिज ही नहीं जाते। पप्पू और पिंकी दोनों जिद पर अड़े हुए है- ‘‘पापा जब तक आप हमें अच्छे कपड़े नहीं सिलवायेंगे, हम कालिज नहीं जाऐंगे | हमारे इन सूती कपड़ों को देखकर हमारा मज़ाक उड़ाया जाता है। हमें हीनदृष्टि से देखा जाता है, पापा हमें भी टेरीकाट के कपड़े सिलवा दो न।’’
क्या जवाब दूं इन बच्चों कों? कुछ भी तो समझ नहीं आता, मंहगाई दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है | तनख्वाह वही हज़ार रूपल्ली | किस-किस को पहनाऊं टेरीकाट?
खैर…. जो भी हो, बच्चों के लिए टैरीकाट, अपने लिए खादी का कुर्ता पाजामा ले आया हूं, और लो भाई उसे अब पहन भी लिया।
‘‘देखो तो! केसा लगता हूं!
‘‘क्या खाक लगते हो…. जोकर दिखायी देते हो जोकर…. किसी अन्य चीज में कटौती कर लेते… क्या जरूरत थी इस तरह खुद को तमाशा बनाने की….. बच्चे सूती कपड़े पहनकर नहीं जा सकते…. दो दो तमाचे पड़ जायें तो सीधे भागेंगे कालिज…|’’
पत्नी के चेहरे के भावों को पढ़कर तो यही लगता है। ओफ्फोह… कभी-कभी पत्नी की खामोशी भी कितनी भयावह होती है…
पत्नी से आगे बिना कोई शब्द कहे मैं चुपचाप दफ्तर खिसक आया हूं। आज तो बड़ी हैरत से देख रहे हैं ये लोग मुझे।
‘‘आइए! नेताजी आइए!’’
‘अरे भाई जल्दी करो हमारे नेताजी को ‘नगर पालिका और भ्रष्टाचार’ विषय पर भाषण देना है… बदतमीजो अभी तक मंच भी तैयार नहीं हुआ।’’
बड़े बाबू मुझ पर चुटकियां लेते हुए बोलते हैं । दफ्तर में ठहाकों की एक बौछार हो जाती है..। ‘‘क्या फब रहे हो यार!’’ एकाउन्टेन्ट अपनी पेन्ट ऊपर खिसकाते हुए एक और चुटकी लेता है। मैं एक खिसियानी सी हंसी हंसता हूं।
‘‘अबे ! झूठ क्यों बोलता है?… शेखचिल्ली लग रहा है शेखचिल्ली!! बीच में एक और कर निरीक्षक की आवाज उमरती है।
‘‘चुप बे! असली व्यक्तित्व तो कुर्ते पाजामे में ही झलकता है’’ बड़े बाबू पुनः चुटकी लेते हैं।
कटाक्ष-दर-कटाक्ष, व्यंग्य दर व्यंग्य, चुटकी-दर-चुटकी सह नहीं पा रहा हूं मैं | सोच रहा हूं- ‘‘क्या इस भारतीय परिधान में सचमुच इतना बे-महत्व का हो गया हूं….!!! इन बाबुओं को तो छोड़ों, ये साला चपरासी रामदीन कैसा खैं खैं दांत निपोर रहा है.. जी में आता है कि साले की बत्तीसी तोड़कर हाथ पर रख दूं… कुर्ता पजामा पहनकर क्या आ गया हूँ, सालों ने मज़ाक बना लिया।‘‘ ढेर सारे इस तरह के प्रश्न और विचार उठ रहे है। मन ही मन मैं कभी किसी को तो कभी किसी को डांट रहा हूं।
वार्ड उन्नीस की फाइल मेरे हाथों में है, पर काम करने को जी नहीं हो रहा है.. मैं अन्दर ही अन्दर जैसे महसूस कर रहा हूं कि प्रत्येक बाबू की मुझ पर टिकी दृष्टि मेरे भीतर अम्ल पैदा कर रही है और मैं एक लोहे का टुकड़ा हूं।
आज इतवार का अवकाश है। घर पर करने को कोई काम भी नहीं है। जी उचाट-सा हो रहा है। मीनाक्षी में शोले लगी है, बिरजू कह रहा था अच्छी फिल्म है। सोच रहा हूं देख ही आऊं | लो अब मैं वही कुर्ता-पजामा पहन कर फिल्म देखने घर से निकल आया हूं और एक रिक्शे में बैठ गया हूं।
‘‘बाबूजी! आखिर इस देश का होगा क्या?’’ रिक्शेवाला पैडल मारते हुए बोलता है।
‘‘क्यों? मैं एक फिल्म का पोस्टर देखते-देखते उत्तर देता हूं।’’
‘‘जिधर देखो उधर हायतौबा मची हुई है… भूख…. गरीबी…. अपराध….भ्रष्टाचार…. हत्याओं से अखबार भरे रहते है |’’ मैं उसे कोई उत्तर नहीं देता हूं बल्कि एक दूसरे पोस्टर जिस पर हैलेन की अर्धनग्न तस्वीर दिख रही है, उसे गौर से देखता हूं।
‘‘आजकल बलात्कार बहुत हो रहे हैं बाबूजी वह भी थाने में….|’’
‘‘क्या यह सब पहले नहीं हुआ भाई…|’’
‘‘हुआ तो है पर…. अकालियों को ही लो… हमारी प्रधनमंत्री कहती हैं….|” रिक्शेवाला एक ही धुन में बके जा रहा है-….. बाबूजी इन नेताओं ने तो…. खादी के कपड़े पहनकर वो सब्जबाग दिखाये हैं कि पूछो मत….|’’
‘अच्छा तो ये हजरत मेरा कुर्ता-पजामा देखकर मुझे नेता समझ कर अपनी भडांस निकाल रहे हैं’, यह बात दिमाग में आते ही मेरी इच्छा होती है कि इन कपड़ों को फाड़कर फैंक दूं और आदिम मुद्रा में यहां से भाग छूटूं।
‘‘चल चल ज्यादा बकबक मत कर’’ मैं उस पर बरस पड़ता हूं। रिक्शे वाला रास्ते भर मुझसे बगैर बातचीत किए मीनाक्षी पर उतार देता है |
‘‘ बड़ी भीड़ है…. उफ् इतनी लम्बी लाइन… क्या सारा शहर आज ही फिल्म देखने पर उतर आया है…. कैसे मिलेगी टिकट….?’’’ मैं लाइन से काफी अलग खड़े होकर सोचता हूं।
‘‘भाईसाहब टिकिट है क्या? 50 रुपये ले लो… एक फर्स्ट क्लास…|” एक युवक मेरे पास आकर बोलता है।
‘‘मैं क्या टिकिट ब्लैकर लगता हूं जो….|’’ मैं उसे डांट देता हूं।
‘‘अजी छोडि़ए इस हिन्दुस्तान में नेता क्या नहीं करते, चुपचाप टिकिट निकालिए…. पन्द्रह रुपये और ले लीजिए…. हमें तो आज हर हाल में फिल्म देखनी है।’’ वह ढ़ीटता भरे स्वर में बोलता है।
‘‘जाते हो या पुलिस को….’’ मैं उसे धमकी देता हूं।
‘‘पुलिस! हां हां क्यों नहीं.. आजकल तो वह आपके इशारों पर नाचती है ।’’ वह बीड़ी सुलगाते हुए बोलता है।
‘‘केसे बदतमीज से पाला पड़ गया |’’ मैं आवेश में चीख पड़ता हूं।
‘‘ साला! गाली देता है… बहुत देखे हैं तुझ जेसे खद्दरधारी |’’ वह भी तैश में आ जाता है।
मैं हाथापाई पर उतर आया हूं, वह भी हाथापाई पर उतार आया है… लोगों ने बीच-बिचाव कर दिया है… मेरा मूड बेहद खराब हो चला है।
मैं पिक्चर देखे बगैर घर लौट आ गया हूं… और अब बिस्तर पर पड़ा-पड़ा सोच रहा हूं-‘‘ सुबह होते ही यह कुर्ता-पाजामा किसी भिखारी को दे दूंगा.. जब तक नये टेरीकाट के कपड़े नहीं बन जाते, यूं ही फटे पेन्ट-शर्ट में दफ्रतर जाता रहूंगा…।
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