दायरे से बाहर
जब होनी ही नहीं कबूल तो दुआ क्या करूँ
हो गए हैं मेरे खिलाफ अब खुदा क्या करूँ।
खुशियों ने करी है खूबसूरत साज़िश दोस्तों
कर दिया गमों को मुझ पर फिदा क्या करूँ।
इस कदर गले लग गई जिम्मेदारियां मुझसे
कर न पाए उन्हें हम कभी जुदा क्या करूँ ।
मुश्किलों ने मसरूफ कर दिया ऐसे मुझको
आशिक़ी के लिए वक्त ही न मिला क्या करूँ।
ज़िंदगी के जद्दो-जहद ने ही लाचार कर दिया
चाह कर भी मैं किसी का न हुआ क्या करूँ।
-अजय प्रसाद