दाम्पत्य में नोक-झोंक
दाम्पत्य में नोक-झोंक
//दिनेश एल० “जैहिंद”
जीवन का ये सफर अकेले नहीं कटता | एक साथी की जरूरत होती है | महिला को पुरुष की तो पुरुष को एक महिला की | यही जरूरत पति पत्नी का रिश्ता लेकर आया | और इसी रिश्ता से एक नये परिवार की रचना हुई और इसी रिश्ते को आधार बनाकर सारे रिश्तों का ताना-बाना बुना गया |
सारे रिश्तों के मूल में पति-पत्नी ही है | यही कारण
है कि समाज -शास्त्रियों ने कहा कि पति-पत्नी का रिश्ता बड़ा नाजुक होता है |
सामाजिक बानगी के मुताबिक स्त्री का अपना घर भी अपना नहीं होता है | सो शुरूआती दौर से ही उसे ये ताने सुनने को मिलने लगते हैं कि कौन सा तुम्हें यहाँ रहना है | अर्थात लड़की की शादी होगी और अपने पति के घर चली जाएगी | गर वहाँ भी वह घरणी बनकर रही तो ठीक वरना वह घर भी उसका नहीं होता है | यह एक बहुत बड़ी बिडम्बना है महिलाओं के साथ | और कड़वा सच भी | मगर इससे विलग होकर इस पुरुष प्रधान समाज में स्त्री का कोई अस्तित्व भी नहीं है |
मगर एक तरह से देखें तो यही हकीकत है और यही पारिवारिक ढाँचा है | परिणामत: पत्नी और पति
को संग रहना ही है, वे राजी-खुशी रहें या मजबूरी में |
मैं भी अपनी पत्नी के साथ रहता हूँ जैसे दुनिया के तमाम पत्नी-पति एक साथ रहते हैं | इस संसार में तमाम जोड़े हैं और सबके साथ कुछ-न-कुछ खट्टी -मीठी नोक-झोंक चलती ही रहती है – कभी खुद को लेकर, कभी सास-ससुर को लेकर, कभी बेटी-बेटों को लेकर तो कभी साली-सरहज को लेकर | पर कुछ भी कहिए आता बड़ा मजा है इस नोंक-झोंक में |
मैंने एक बात महसूस की है और किताबों में भी पढ़ी है कि गर पत्नी को छेड़ना है तो बस उसके मायके की बात उठा दीजिये, है न, और फिर नापिए मंद-मंद मुस्काते हुए पत्नी का पारा | झूठ नहीं बोलूँगा – मेरी पत्नी अनपढ़ है यानि स्कूल नहीं गई हैं |
एक बार ऐसे ही बातों-बातों में मैंने कह दिया कि बगल में ही तो प्राइमरी और हाई स्कूल थे, पढ़ क्यों न लिया | तो बिगड़ गई | और लगी उल्टी-सीधी व अनाप-शनाप बातें कहने और मुझे कोसने भी | एक बात है पति-पत्नी के स्टेटस का कितनाहुँ फासला हो, पर सोच फिफ्टी-फिफ्टी की ही होती है | अरे, पत्नी मेरी है, मुस्काकर झेलना ही है | तभी तो पति का दर्जा बरकरार रहेगा, वरना पति काहे का ? और यहाँ मैं पति और उस पर से एक धाँसू लेखक !
यूँ तो मेरी और श्रीमती के बीच नोंक-झोंक चलती ही रहती है, पर हर बार हार मैं ही जाता हूँ, उन्हें हारने नहीं देता हूँ | गर हार भी गईं तो रोऩा- धोना शुरू, महिलाओं का अंतिम हथियार जो है यह | फिर घंटों मनाने बैठो | मनाऊँ भी क्यों नहीं बंधुओ…. हजार फिल्में और हजारों किताबें पढ़ने का कुछ तो फायदा लेना ही चाहिए ऐसे नाजुक मौके पर |
एक बार ऐसे ही भोजन करने बैठा | सब्जी मुझे अच्छी नहीं लगी तो मैंने कह दिया -“क्या बनाती हो तरकारी ! खाना बनाने में तो तुम्हारा मन ही नहीं लगता है | लग्गी से घास टारती हो सिर्फ | पच्चीस साल हो गए शादी को मगर अभी भी खाना बनाने नहीं आया |”
फिर कहना क्या था, जवाब मिला -“बनाते क्यों नहीं हो ? दिन भर तो मोबाइल और नेट पर चढ़े रहते हो |”
सुनकर मैं भी होशियार पति जैसा चुपचाप भोजन कर लिया |
वैवाहिक जीवन अगर ट्रेन हैं तो पति-पत्नी उस ट्रेन की पटरी | जितनी लम्बी दूरी तय करनी है उतनी दूरी तक पटरी की नाप-तोल दुरुस्त होनी चाहिए वरना………. !
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दिनेश एल० “जैहिंद”
08. 04. 2019