दानी
दानी
सेठ किरोड़ीमल जी ने शहर से कुछ ही दूरी पर स्थित रायपुर गांव में अपनी नई फैक्ट्री खोलने के साथ ही साथ उसके सामने एक भव्य मंदिर का भी निर्माण कराया। अपने पंडित जी की सलाह पर सेठ जी इस बात से भी सहमत हो गए कि जो भी श्रद्धालु स्वेच्छा से मंदिर निर्माण और उसकी प्राण प्रतिष्ठा समारोह के के अवसर पर आयोजित भंडारा में दान करना चाहेंगे, उसे सहर्ष स्वीकार कर लिया जाए।
दान में प्राप्त राशि का सदुपयोग हो, इसलिए सेठ जी ने इस काम के लिए अपना एक कर्मचारी भी नियुक्त कर दिया, जो दान में प्राप्त राशि का संग्रहण करता और उसकी रसीद काट कर देता। दान संग्रहण केंद्र के आसपास जगह – जगह यह सूचना चस्पा कर दिया गया कि बिना रसीद प्राप्त किए कोई भी व्यक्ति राशि या सामग्री जमा न करें।
एक दिन सेठ जी अपने फैक्ट्री और मंदिर निर्माण के कार्य की प्रगति देखने के लिए वहां पहुंचे। उन्होंने दान संग्रहण केंद्र के पास एक नौजवान को मुंह लटकाए खड़ा देखकर पूछ लिया, “क्या बात है बेटा, तुम क्यों उदास खड़े हो ?”
वह युवक बोला, “सर, मैं इस मंदिर निर्माण के लिए तीन सौ रुपए का चंदा देने के लिए आया हूं। उधर काउंटर में बैठे कर्मचारी का कहना है कि पांच सौ रुपए से कम का चंदा देने वाले व्यक्ति को रसीद नहीं दिया जाएगा और बिना रसीद के पैसे भी स्वीकार नहीं कर सकते। मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि मैं और दो सौ रुपए कहां से लाऊं ?”
सेठ जी ने पूछा, “बेटा, तुम कौन हो और कहां से आए हो ?”
युवक ने बताया, “सर मैं सुमन कुमार हूं। मैं यहीं पड़ोस के गांव नवापारा का रहने वाला हूं। वहां मैं छोटे – छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ा कर अपना परिवार चलाता हूं।”
सेठजी ने जिज्ञासावश पूछा, “बेटा, तुम्हारे परिवार में और कौन-कौन हैं ?”
युवक ने बताया, “मैं और मेरी मां। मेरे पिताजी का दस साल पहले ही एक एक्सीडेंट में देहांत हो गया था। पहले मां दूसरों के घरों में झाड़ू-पोंछा कर मेरी पढ़ाई परिवार का खर्चा उठाती थी। इंटर पास होने के बाद मैंने उनका यह काम बंद करा दिया और खुद ट्यूशन पढ़ाते हुए ग्रेजुएशन कर लिया है।”
सेठ किरोड़ीमल जी ने फिर से पूछा, “सुमन, तुम्हारी कमाई तो बहुत ही कम होगी, फिर भी मंदिर निर्माण के लिए दान… मेरा मतलब है कि यह जरूरी तो नहीं है न ?”
सुमन बोला, “हां सर, आपका कहना सही है कि यह जरूरी तो नहीं है, पर मुझे और मेरी मां को ऐसा लगता है कि इतना बड़ा और पवित्र काम हो रहा है, तो उसमें हमारा भी कुछ तो योगदान होना चाहिए न। इसलिए मैं और मेरी मां हर इतवार को सुबह के समय यहां श्रमदान करने आते हैं। मां ने घर खर्च के बाद अपने बचाए हुए ये तीन सौ रुपए देकर कहा है कि इसे मंदिर निर्माण में खर्च करने के लिए दान कर देना।”
सेठ जी ने कहा, “बेटा, ये रखो दो सौ रुपए। जाकर वहां जमा कर दो और रसीद भी ले लो। तुम्हारा काम भी हो जाएगा और संकल्प भी।”
“माफ़ कीजियेगा सर, मैं ऐसा नहीं कर सकता। किसी से पैसे लेकर दान करना उचित नहीं होगा। सॉरी सर, प्लीज़ आप मेरी बात को अन्यथा मत लीजिएगा।” सुमन विनम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर बोला।
सेठ किरोड़ीमल ने कुछ पल सोचकर कहा, “सुनो मिस्टर सुमन कुमार, रूक जाओ।”
सुमन मुड़कर बोला, “जी सर। कहिए।”
सेठ जी ने कहा, “देखो सुमन, हमारी योजना है कि इस मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा के बाद इसके संचालन के लिए एक ट्रस्ट बनाया जाएगा। इसके सुव्यवस्थित संचालन के लिए हमें एक ईमानदार मैनेजर की तलाश थी। मुझे लगता है कि हमारी तलाश पूरी हो गई है। क्या तुम ये काम करना चाहोगे ?”
“सर मैं… और मैनेजर…”
“हां बेटा तुम इसके मैनेजर होगे और मुझे पूरा विश्वास है कि तुम एक बेहतर मैनेजर साबित होगे।”
“सर, इस बारे मैं एक बार अपनी मां से भी पूछना चाहूंगा। आज तक मैंने बिना उनसे विचार-विमर्श किए कुछ भी नहीं किया है।”
“ठीक है। चलो हम भी तुम्हारे साथ चलते हैं। इस बहाने हम भी उन देवी के दर्शन कर लेंगे, जिन्होंने तुम्हारे जैसे सुयोग्य और संस्कारी पुत्र जना है। और हां, यदि तुम चाहो तो प्रतिदिन कुछ घंटे मंदिर परिसर के सभाकक्ष में छोटे – छोटे बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ा सकते हो। लेकिन हां, इसके लिए बच्चों से कोई फीस नहीं लेंगे। हमारी फैक्ट्री के अन्य मैनेजर्स की भांति तुम्हें वेतन-भत्ते और अन्य सभी सुविधाएं मिलेंगी। मंदिर के पास ही रहने के लिए आवास की सुविधा भी।”
सेठ जी के आग्रह पर सुमन की मां ने तुरंत ही सहमति दे दी।
कुछ ही दिनों के बाद सुमन अपनी मां के साथ मंदिर परिसर के पास मिले स्टाफ क्वार्टर में रहने लगा।
अब वह ट्रस्ट का काम करते हुए प्रतिदिन दो घंटे बच्चों को नि:शुल्क पढ़ाता भी है।
-डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर, छत्तीसगढ़