दानवीर कर्ण।।
सूर्य पुत्र के रूप में जन्मा,
कुन्ती है जन्मदात्री मां।
पाल पोस कर बड़ा किया है,
वो मुंह बोली है राधेय मां।
है नहीं यह क्षतृय वर्ण ,
तब ही सुत पुत्र कहलाते कर्ण।
कर्ण को है पालक मां पर बड़ा अभिमान,
राधेय कहलाने में, पाते हैं यह सम्मान।
शिक्षा गुरु परशुराम हैं,
जिनसे पाया शिक्षा का दान ।
उच्चकोटि का है यह धन्नुरधर,
मित्रों का है मित्र है यह,
शत्रुओं का यह शत्रु प्र खर।
अर्जुन को जब इसने ललकारा,
सूत पुत्र कह कर इसे पुकारा ।
दुर्योधन ने मौका पाकर,
मित्र कह कर इन्हें बुलाया।
और दे दिया एक राज्य,
अंग प्रदेश का राजा बनाया।
कर्ण मित्र के अहसानों में बंध गए,
मित्र के लिए अब जान न्योछावर करने की कह गए।
अर्जुन को यह अपना प्रतिद्वंद्वी मान लिया है,
अब इसी से युद्ध करने को कह दिया है।
अर्जुन तो इन्द्र देव का अंश है,
कर्ण से होना है जो युद्ध,
उससे उनके बना हुआ संशय है।
क्योंकि, कर्ण जन्म से कवच कुण्डल से शुशोभित है,
और यही इन्द्र को दिखता संकट है।
इस लिए वह छल करके दान मांगते हैं,
और कर्ण से कवच कुण्डल मांगते हैं।
कर्ण को सूर्यदेव ने यह जता दिया था,
किन्तु कर्ण ने इसको अस्वीकार किया था ।
तब सूर्य देव ने यह समझाया,
अमोघ अस्त्र लेने को कहलाया ।
और जब इन्द्र देव ने आकर कवच कुण्डल को मांग लिया,
तो कर्ण ने पहले इन्द्र देव को प्रणाम किया,
और कहने लगा,से देव मैं क्या सेवा करूं,
जो आप कहें वह मैं सहर्ष करूं।
तब इन्द्र देव ने कवच कुण्डल को मांग लिया,
और कर्ण ने भी निशंकोच उन्हें वह प्रदान किया।
इन्द्र देव ने तब वर मांगने को कहा था,
अब कर्ण ने इन्द्र देव को यह कहा था,
यूं तो दान के बदले में दान नहीं लेते हैं,
किन्तु यदि आप देना चाहते हैं तो,
यह दान दीजिए ,
मुझे एक अमोघ अस्त्र प्रदान कीजिए ।
इन्द्र ने वह अस्त्र प्रदान किया,
और साथ ही यह भी कह दिया।
इसका उपयोग एक बार ही हो सकेगा,
फिर यह मुझसे वापस आ मिलेगा ।
कर्ण ने यह जानकर भी वह दान किया,
इस तरह के दान से उस पर संकट बढ़ेगा।
किन्तु वह किसी याचक को बिना दान के नही लौटा सकता,
तब चाहे कोई जान ही मांग कर लें जाए, वह देकर ही मानेगा ।
और यह उसने करके दिखाया था,
मांगने वाले को खली हाथ नहीं लौटाया था।
अब जब कुन्ती को यह लगने लगा,
युद्ध होने को है, तो उसने भी, कर्ण से संपर्क किया,
और कर्ण को अपना पुत्र कह कर पुकारा दिया।
कर्ण ने तब कुन्ती से यह प्रतिकार किया,
और कहने लगा, नहीं मुझे पुत्र कह कर पुकारो,
मैं तो राधेय का ही पुत्र कहलाता हूं,
जिसने मुझे अपने प्राणों से भी अधिक चाहा है,
मैं उसका पुत्र नहीं हूं, जिसने मुझे तब त्याग दिया है।
किन्तु से माता , तुम अपने आने का कारण बतलाओ,
मुझसे करता चाहती हो, यह बतलाओ।
उसने अपने पुत्रों के साथ आने के लिए कहा,
तो कर्ण ने यह कहकर इंकार कर दिया।
पहले मुझे त्यागकर , मुझसे नाता तोड दिया था,
और अब मुझसे कहती हो, मैं उसका साथ छोड़ दूं,
जिसने मुझे तब अपनाया था, जब मेरे साथ नहीं खड़ा था।
ना माता ना,यह मुझसे ना हो सकेगा,
यह संसार मुझे क्या कहेगा।
माता तुम कुछ और मांगलो ,
तब माता कुंती ने अपने पुत्रों के जीवन का अभय मांग लिया,
तब कर्ण ने मां से कहा है, अर्जुन और मुझमें रण तय है,
जो जीवित बचेगा, तुम्हें तो पांच पुत्रों का ही स्नेह मिलेगा।
इस प्रकार उसने चार पुत्रों का जीवन दान कर दिया था।
एक बार अर्जुन को यह अभिमान हो गया था,
केशव के वह सबसे प्रिय हैं, और यह उन्होंने मानव कह दिया,
तब कृष्ण ने अर्जुन से कहा था, मुझे और भी कई प्रिय हैं।
अर्जुन को अपने दान पर गर्व होने लगा था,
तब भी कृष्ण ने यह कह दिया था, समय आने पर पता चलेगा,
युद्ध में जब अर्जुन ने कर्ण को घायल कर दिया था,
तब केशव ने यह कहकर कर्ण के समक्ष ले गया था,
और कर्ण से कहा हे दानवीर, मुझको भी कुछ दान कर दें,
तो कर्ण ने यह कहकर,हे माधव मेरे पास देने को करता रहा है,
कृष्ण ने तब कहा था, जो भी हो, वह दे सकते हो।
तब कर्ण ने अपने उस दांत को निकाल कर उन्हें दे दिया,
और इस प्रकार उन्होंने, अपने दान देने के धर्म का निर्वाह किया।
इस तरह उसने मित्र धर्म से लेकर दानवीर होने का फर्ज निभाया।
इस लिए कर्ण को महावीर से पूर्व दानवीर कहा गया ।
दान वीर कर्ण , महावीर कर्ण, मित्र कर्ण , किन्तु अधर्मी के साथ खड़ा कर्ण, कितनी ही पहचान लिए हुए हैं कर्ण।
उनका मुल्याकंन करने को आप अपने अनुसार हैं स्वतंत्र।।