दादी की वह बोरसी
कितना सर्द मौसम है
पर वो सुहानी शाम है ,
जलती अंगीठी के पास
ही बस केवल आराम है
आता है गांव याद हमें
दादी की वह बोरसी,
जिसमे डालते थे हम
छोटे आलू और छिमी।
सोंधी सोंधी से वह
स्वाद आज भी याद है,
फीकीं उसके सामने
मटर पनीर का स्वाद है।
उसी बोरसी पर दादी
की अदरक की चाय,
आज भी उसकी महक
भूलती नहीं है भाय।
दादी के कम्बल में
घुस कर सो जाना ,
वो दादी की मनोरम
कहानियों का खजाना।
उनमे से आज भी
कितनी याद है हमें,
आज बच्चो को सुनाने
के बस चाह है हमें।
पर फुर्सत जो मिले
उन्हें टीवी, मोबाइलों से,
अरमान है निर्मेश कि
कुछ सुना दूँ उनको।
आज के इन बच्चों का
बचपन कहाँ बचा है,
समय से पूर्व बड़े हो गये
ऐसा ही बस लगता है।
निर्मेश