*दादी की बहादुरी(कहानी)*
बात आज से लगभग 60-70 साल पहले गांव- तरारा, पोस्ट- उझारी, तहसील- हसनपुर, जिला- अमरोहा की है।उस समय गांव में अधिकतर कच्चे घर हुआ करते थे। कोई व्यक्ति जो अमीर था उसी के पक्के मकान थे। उस समय गांव में अगर कोई विवाद लड़ाई- झगड़ा या कोई परेशानी होती थी, तो गांव के ही मुख्य और बुजुर्ग लोग उसे घर पर ही निपटा लेते थे। घर कच्चे और अधिक ऊंचे न होने के कारण लोग वर्षा से बहुत डरते थे, क्योंकि पानी घर में भर जाता था और पूरा दिन उसे उलीचने (निकालने) में लग जाता था। घरों के ऊपर अधिकतर छप्पर होने के कारण आग लगना भी एक सामान्य सी घटना थी। घरों की चाहर दीवारी न होने से कोई भी जंगली जानवर का आना-जाना एक आम बात थी।
हमारा घर भी उस समय कच्चा ही था और उस पर छप्पर पड़ा हुआ था। मेरी दादी जिनकी उम्र उस समय लगभग 40- 41 वर्ष थी सभी कार्य हाथों से ही करती थी क्योंकि उस समय वैज्ञानिक यंत्रों का विकास तो हुआ था, पर गांवों में बहुत कम। उस समय मेरे पिताजी की उम्र लगभग 20-22 वर्ष की होगी। और मेरे एक चाचा जिनका नाम गुरमुख सिंह था लगभग डेढ़- दो वर्ष के होंगे।
उस समय जंगली जानवरों का बहुत आतंक था। दिन छिपते ही भेड़िया अपना आक्रमक रूप दिखाने लगते थे। उस समय जंगली जानवर द्वारा हमला करना एक सामान्य सी घटना थी। लोग शाम के 6- 7 बजे के बाद घर से भी नहीं निकलते थे। अगर किसी व्यक्ति , बच्चे या किसी पालतू जानवर पर हमला हो जाता था, तो लोग घबरा जाते थे। ऐसे में सभी गांव वाले भयभीत हो जाते थे, क्योंकि संगठित होकर समस्या का सामना करने के लिए किसी में हिम्मत न थी।
एक दिन की बात है, मेरी दादी जी श्रीमती प्रेमिया देवी घर पर ही अकेली थी। पापा और दादाजी खेत से मूंगफली लेने के लिए गए थे। दादी जी के साथ हमारे मझले चाचा पास में ही दादी से लगभग चार या पांच मीटर की दूरी पर खेल रहे थे और दादी जी हाथ वाली चक्की से आटा पीस रही थीं। दादी जी बार-बार चाचा जी को अपने पास बैठातीं थी, लेकिन बच्चा तो बच्चा ही होता है, वह उनके पास रुकने वाले कहां थे। फिर जाकर थोड़ी दूर खेलने लगते। उस समय शाम के 6- 7 ही बजे थे कि अचानक एक खूंखार भेड़िया आ गया। दादी जी का ध्यान आटा पीसने में ही था। भेड़िया काफी देर तक खड़ा हुआ, चाचा जी को उठाकर ले जाने का अवसर देख रहा था। जैसे ही भेड़िया ने मौका पाया, चाचा जी को मुंह में भरकर उठाकर ले जाने लगा, तभी चाचा जी की चीख निकली ही थी, कि मेरी दादी जी ने चिमटा उठाकर भेड़िया का पीछा किया। भेड़िया जब चाचा जी को ले जा रहा था, तब उसके मुंह में गर्दन थी और पैर जमीन पर खिचड़ रहे थे। दादी जी ने दौड़कर बहादुर और साहस के साथ चाचा जी के पैरों को अपने हाथों में पकड़ लिया और भेड़िए के साथ-साथ उस पर चिमटा का वार करते हुए गांव के छोर तक चली गईं, मगर अभी भी चाचा जी को भेड़िया ने नहीं छोड़ा। दादी जी ने लगातार कोशिश की पर भेड़िया ने अब भी चाचा जी को नहीं छोड़ा। गांव के छोर पर जैसे ही भेड़िया पहुंचा और उसने चाचा जी को जबड़े में अच्छी तरह से पकड़ने के लिए उठाया तभी दादी जी चाचा जी को भेड़िया से छुड़ाने में सफल हो गईं। अर्थात उनकी बहादुरी और साहस के आगे भेड़िये को झुकना पड़ा और वहां से भाग जाना पड़ा। सभी गांव वालों ने दादी जी की इस बहादुरी के लिए भूरी- भूरी प्रशंसा की और गांव वालों ने सलाह दी कि चाचा जी को डॉक्टर के पास ले जाएं, क्योंकि उनके गाल और गर्दन में काफी जख्म हो गए थे। तभी पिताजी और दादाजी चाचा जी को डॉक्टर के पास ले गए उनके गाल और गर्दन में 20 से भी अधिक टांके आए।
जैसे ही पिताजी और दादाजी भैंसा गाड़ी से चाचा जी की दवाई लेकर आए तो देखा कि वही भेड़िया घर के सामने अब भी खड़ा हुआ था और पिताजी को घूर रहा था। यह देखकर पिताजी ने चार-पांच पैना तुरन्त जड़ दिए और भेड़िया घूरते हुए भाग गया।
चाचा जी को भेड़िया से बचने के कारण पूरे गांव में दादी जी की बहादुरी और साहस की चर्चा हो रही थी। जो केवल हमारे गांव तक ही सीमित रही, लेकिन आज के जमाने में ऐसा कोई बहादुरी और साहस का कार्य करता है, तो उसके चर्च चारों ओर छा जाते हैं और सरकार द्वारा भी उसे उसकी बहादुरी के लिए पुरस्कृत किया जाता है। आज हमारे चाचा भी हमारे पास है पिताजी भी हमारे साथ हैं, लेकिन आज हमारे पास हमारी दादी जी नहीं है। उनके बिना यह संसार अंधकारमय दिखाई देता है। क्योंकि उनकी हर एक याद, हर एक बात हमसे जुड़ी हुई है। दादी जी की याद हमेशा आती रहती है। आज सब हम साथ-साथ हैं, मगर मेरी दादी सदा- सदा के लिए हमसे 9 जनवरी 2018 को जुदा हो गईं। सभी के साथ-साथ अगर दादी जी भी आज साथ होती तो, वह हमें आगे बढ़ता देखकर कितनी खुश होती। वह लगभग 90 से अधिक वर्ष की आयु में स्वर्ग सिधार गईं । हमें इस अथाह संसार में जन्म देने वाली माता जी का स्वर्गवास बचपन में हो जाने के कारण, हम सब भाई बहनों का पालन पोषण दादी जी ने ही किया था। वह 90 वर्ष की हो जाने के बाद भी कभी भी किसी भी कार्य को करने से पीछे नहीं हटती थी और हमें कभी बिना रोटी खाये स्कूल, कॉलेज नहीं भेजा। वह हमसे कभी भी कोई चीज छुपा कर नहीं खाती थी, सभी को अच्छी सलाह देती थी।
आज दादी जी के न होने से घर सूना- सूना सा दिखाई देता है। बचपन में मां छोड़कर चली गई थी। उस मां की ममता की कमी हमारी दादी जी ने पूरी की और हमें जीवित रहते यह महसूस नहीं होने दिया कि हमारी मां नहीं है। मैं ऐसी महान साहसी बहादुर और ममतामयी देवी का सदा सदा आभारी रहूंगा, जिसकी कृपा और ममता से हम सब भाई-बहन आगे पले बढ़े।
यह कहानी काल्पनिक नहीं है बल्कि वास्तविक है। कुछ शब्दों के माध्यम से वास्तविक परिदृश्य को कहानी का रूप देने की कोशिश की है। जो मेरी दादी जी को समर्पित है।