दहेज में जलती है बेटी
आह आह कर रही हूँ मैं
घुट घुट कर जी रही हूँ मैं
जिस अग्नि को साक्षी मान,
सात फेरों से बंधा मेरा जीवन
वचनों से बंधकर जीवन पथ,
अकेले ही अकेले चली थी मैं।
क्या पता था कि एक दिन
उसी आग में जल मरूँगी मैं।
जिसको हमने अपना माना
उसने ही मेरा जीवन ने छीना।
जिस पर अपना जीवन वारा।
उसने ही जीवन छीना है मेरा।
बेटी का जीवन क्यों ऐसा होता,
दूजे के घर दूजे संग भेजा जाता।
नाजो से जिसे घर मे पाला जाता
परायो के डोर में है बांधा जाता ।
माँ- बाबा तुम भी कम दोषी नहीं
मिले उसे सजा फांसी से कम नहीं
तुमने ही कलेजे के टुकड़े के साथ
धन- दौलत और बर्तन दहेज दिया।
दहेज लोभियों का मन बढ़ता गया,
जुल्म पर जुल्म मुझ पर ढाता गया।
इतने में भी जब उसका मन नहीं भरा
आग के हवाले मेरा जिस्म है किया।
कोई बताएं कि मेरा कसूर है क्या ?
मैंने तो अपना जीवन औरों को किया।
तन मन अपना उस पर वार कर जीया
फिर भी अपना क्यों नहीं हुए मेरे पिया।
मुझसे अब नहीं होता है सहन।
बेटियों को दे दो अब ये वचन।
ब्याहे बेटी को उस घर आँगन
खुशियों से भर जाय दामन।
बेटी सब देना उस घर मे,
जहां दहेज का नाम न हो,
जहां बहू बेटी का हो सम्मान।
दहेज की न हो कोई मांग।
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©®रवि शंकर साह ” बलसारा”
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