दहाड़े मार कर रोना चाहती हॅं
दहाड़े मार कर रोना चाहती हॅं
देखो तो जां मैं ए क्या चाहती हॅं !
बड़ी उलझी उलझन सी रहती है
मन के गांठों को खुलवाना चाहती हूॅं !
रात के सिरहाने गिलाफ पे अपने
चाॅंद को चमकता देखना चाहती हूॅं !
मैं शब भर तेरे सीने के नर्म बालों को
आंसुओं से अपने भिगोना चाहती हूॅं !
~ सीद्धार्थ