दहलीज़
अहसासों की दहलीज से निकल कर
शब्द जब यूँ बिखरते हैं ………
एक अफसाना मुहब्बत का लिख जाते हैं
क्यों तोड़ते हो गुरुर मेरा की तुम मुझे रूह
तक चाहते थे …….
तिनका तिनका आईने में
खुद को संवारती हूँ मैं
कतरा कतरा तुम बिखेर
जाते हो ………..
माना मुहब्बत ही बेरहम होती है
क्यों कर तुम मुझ से दिल लगाते हो …
मैं तो टुटा हुआ घरोंदा हूँ
क्यों कर तुम इस में घर बसाते हो ….
न छत मिलेगी न ज़मी तुमको
इसी एहसास से तुम मुझ से नज़रे
चुराते हो ……….
मिशा