दस्त बदरिया (हास्य-विनोद)
एक कविता आप देखिए जिसका कवि के दस्तों से कोई सम्बंध नही है अर्थात इसमें लिए गए प्रतीकों को दस्त के दौरान होने वाली घटनाओं से कतई न जोड़ें… प्रस्तुत है क्षमा सहित एक हास्य-विनोद रचना👇
दस्त बदरिया
घुमड़-घुमड़ कर आते बादल
ज्यों नभ में छा जाते बादल
छिछिर-छिछिर ऐसे झड़ते थे
ज्यों छप्पर से झड़ता है जल
तड़क दामिनी नाद सुनाती
आशंका से भर जाता था मन
बहुत हो गया अब न बरसे
डरकर खुद से कहता था मन
गोरे मेघा हो गए काले
नही संभलते और संभाले
जितना बरसे चले पनाले
लगे उफनने भर-भर नाले
किंचित निद्रा आ नही पाती
आ जाती आशंकित बदरी
माह माघ की रातें काली
हो जाती थी पानी से पतरी
बन आते जब वायु के गुम्बद
आशा से मन हो जाता गद-गद
लगता था यह उड़ जाएगी
लौट बदरिया फिर न आएगी
मन आशंकित हो जाता था
शीत स्वेदमय हो जाता था
पवन मुक्ति में कहीं बदरिया
एक बूँद भी जो रिस जाती
-दुष्यंत ‘बाबा’
मानसरोवर, मुरादाबाद।