दर्शन एवं विज्ञान (Philosophy and Science)
आज विज्ञान के बारे में सब जानते हैं लेकिन जिस विषय से विज्ञान का जन्म हुआ तथा जिसे भारतीय एवं पाश्चात्य दार्शनिकों ने ‘विज्ञानों का विज्ञान’ कहा है उस विषय ‘दर्शन-शास्त्र’ को शायद ही कोई जानता होगा । प्रारंभ में एक ही विषय था तथा उसकी शाखा-प्रशाखारूप अन्य विविध विषयों का अध्ययन-अध्यापन किया जाता था । वह एक ही विषय ‘दर्शन-शास्त्र’ था । इसके प्रमाणस्वरूप हम ‘पीएच॰ डी॰’ की उपाधि को ले सकते हैं । इसका पूरा अर्थ है ‘डॉक्टर ऑफ फिलॉसाफी’ । किसी भी विषय में किए गए गहन शोध हेतु उपाधि पीएच॰ डी॰ की ही दी जाती हे । हिन्दी में किए गए शोध को ‘डॉक्टर ऑफ ’हिंदी’ नहीं कहते तथा न ही फिजिक्स में किए गए गहन शोध को ‘‘डॉक्टर ऑफ फिजिक्स’ कहते । किसी भी विषय में गहन शोध हो और उसे उपाधि दी जाऐगी ‘डॉक्टर ऑफ फिलॉसाफी’ की । यह इस तरह से समकालीन युग में किसी भी विषय में गहन शोध को ‘डॉक्टर ऑफ फिलॉसाफी’ की । यह इस तरह से समकालीन युग में किसी भी विषय में गहन शोध को ‘डॉक्टर ऑफ फिलॉसाफी’ की उपाधि प्रदान करना विषयों के आदिमूल यानि सब विषयों के आदि पिता ‘दर्शन-शास्त्र’ को दिया गया सम्मान है ।
यह ‘दर्शन-शास्त्र’ विषय ‘विज्ञान’ विषय से कतई नजदीक है। आज इस विषय के संबंध में जानकारी तक भी न होना तथा ‘विज्ञान’ विषय का जन-जन तक विस्तार होना यह दर्शाता है कि आज का विकास एक-पक्षीय विकास है । कोई पुत्र यदि अपने माता-पिता को ही भूल जाए तो इसे किसी तरह से संतान का सही विकास नहीं कहा जाऐगा । ‘विज्ञान’ यानि कि ‘Science’ जिसे लैटिन शब्द ‘साईंटिया’ से आया है उसका अर्थ ‘देखना’ होता है । ‘दर्शन’ का अर्थ भी देखना होता है । इस तरह से भी ये दोनों विषय बेहद नजदीकी लगते हैं । दोनों विषयों का कार्य ‘देखना’ है। विज्ञान बाहरी वस्तुओं को देखकर उनका विश्लेषण करता है तथा उनके मूल-तत्त्वों का ज्ञान देखने वाले को प्रदान करता है । इससे हमारा बाहरी सांसारिक जीवन समृद्ध, वैभवपूर्ण एवं सुखपूर्ण बनता है। ‘दर्शन-शास्त्र’ भी बाहरी वस्तुओं को देखता है, उनका वैचारिक विश्लेषण करता है तथा उनके संबंध सिद्धांत-निर्माण करता है । लेकिन ‘दर्शन-शास्त्र’ यहीं पर रूक नहीं जाता है । यह विषय ‘विज्ञान’ विषय की तरह बाहरी वस्तुओं को देखता है, उनका वैचारिक विश्लेषण करता है, सिद्धांत-निर्माण करता है लेकिन फिर ‘क्यों’ का उत्तर तलाश करने का भी प्रयास करता है । ‘विज्ञान’ के पास सिर्फ ‘कैसे’ का उत्तर देने की क्षमता है जबकि ‘दर्शन-शास्त्र’ इस ‘कैसे’ से गहरे जाकर ‘क्यों’ का उत्तर भी ढूंढता है । परमाणु को इलैक्ट्रोन, न्यूट्रोन एवं प्रोटोन में तोड़ने की विधि विज्ञान दे सकता है लेकिन यह सब इतनी शक्ति जो उससे उत्पन्न होती है यह ‘क्यों’ होता है – इसका उत्तर ‘विज्ञान’ के पास न होकर ‘दर्शन-शास्त्र’ के पास है । परमाण मैं निहित इस शक्ति का आदि स्त्रोत ‘परमात्मा’ है । उस आदि स्त्रोत के संबंध में केवल ‘दर्शन-शास्त्र’ विषय ही विस्तार एवं गहनता से बतला सकता है । आप को यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि ‘विज्ञान’ से जब किसी भी क्षेत्र के ‘क्यों’ का उत्तर मांगा जाता है तो उसके पास ‘अवैज्ञानिक उत्तर’ यह होता है कि मुझे नहीं पता । इसीलिए विज्ञान हमें प्रसन्नता सुख, वैभव एवं समृद्धि दे सकता है लेकिन आदर, समर्पण, तृप्ति, संतुष्टि एवं आनंद नहीं दे सकता है । विज्ञान का कार्य मात्र बाहरी समृद्धि प्रदान करना है । आतंरिक समृद्धि आऐगी ‘दर्शन-शास्त्र’ विषय से ।
विज्ञान बाहरी विषयों का अध्ययन एवं विश्लेषण करके बाहरी जीवन को सुखी तो बना सकता है, परन्तु उसका सबसे बड़ा दोष यह है कि वह ‘जानने वाले’ के संबंध में ‘दर्शन-शास़्’ हमें बतलाता है । और इस ‘दर्शन-शास्त्र’ विषय को ‘विज्ञानों का विज्ञान’ इसलिए भी कहा जाता है कि क्योंकि यह बाहरी विषयों को देखकर ‘देखने वाले’ को देखने की भी सीख देता है । यह यह सीख देकर ही चुप नहीं बैठ जाता अपितु ‘योग-साधना’ के रूप में प्रयोगात्मक विधियों का अभ्यास भी करवाता है जिनसे व्यक्ति – कोई भी व्यक्ति बाहरी संसार को जानकर अपने स्वयं को भी जान लेता है। इस स्वयं के जानने में ही व्यक्ति की सर्व समस्याओं का समाधान है । हम बाहरी संसार को जानते हैं लेकिन अपने स्वयं को नहीं जानते – यह कितनी दयनीय स्थिति है हमारी व हमारे संसार की?
‘विज्ञान’ से हम अपने बाहरी संसार को समृद्ध बनाएं तथा ‘दर्शन-शास्त्र’ से अपने भीतरी जीवन को समृद्ध बनाएं-यही आज के युग की सब से बड़ी जरूरत है । इस हेतु यह आवश्यक है कि ‘विज्ञान’ विषय के साथ ‘दर्शन-शास्त्र’ की भी शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था हम अपने शिक्षा-संस्थानों में करें । ‘विज्ञान’ विषय की अति-लोकप्रियता तथा ‘दर्शन-शास्त्र’ विषय की अति-उपेक्षा हमारे संसार को पतन एवं विनाश की तरफ ले जा रही है तथा आगे भी यह प्रचलन रहा तो हमारी समकालीन सभ्यता को इस पतन व विनाश में जाने से कोइ्र रोक नहीं सकता । व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र एवं संपूर्ण धरा के सर्वांगीण विकास हेतु ‘विज्ञान एवं दर्शन-शास्त्र’ दोनों विषयों को समान महत्त्व दिया जाना जरूरी है ।
भारत एवं भारत से बाहर आए दिन गंभीर अपराध यथा जनसंहार, हत्याएं, आतंकवाद, उग्रवाद, बलात्कार, अनाचार, बदले की भावना, ईष्र्या की भावना, द्वेष की भावना, तनाव, चिंता, आपाधापी, अति-प्रतियोगिता हिंसा, युद्धादि हो रहे हैं । शांति, संतुष्टि, तृप्ति, प्रेम, करुणा, समर्पण, सेवा, आदर एवं अहोभाव तो जैसे इस संसार से विदा ही हो गए हैं । इसकी जड़ में जाने के गंभीर प्रयास हो नहीं रहे हैं । ऊपरी लोपा पोती करके चिकित्सा की जाती है । इससे होता यह है कि ये इस तरह की व्याधियां और भी भयंकर रूप धारण करती जा रही हैं । आज का विज्ञान, चिकित्सा-विज्ञान, मनोविज्ञान, समाज-विज्ञान आदि सब के सब अंधविश्वासी पाखंडी व ढोंगी सिद्ध हो रहे है । इस मामले में जिस तरह धर्म के नाम पर पाखंड, ढोंग व अंधविश्वास व्याप्त हैं उससे कई गुना अधिक पाखंड ढोंग व अंधविश्वास विज्ञान के क्षेत्र में व्याप्त है । ऊपरी सुख-सुविधाओं एवं समृद्धि की सारी सामग्री तो विज्ञान ने उपलब्ध करवा दी, परंतु भीतरी समृद्धि, भीतरी वैभव, भीतरी संतुष्टि, भीतरी आनंद एवं तृप्ति हेतु विज्ञान ने आज तक कुछ भी नहीं किया है । अपने क्षेत्र की उन्नति करना उसकी वैज्ञानिकता है लेकिन अपने से परे के क्षेत्र की अवहेलना करके उसकी सत्ता से ही मना कर देना उसकी घोर अवैज्ञानिकता है । अरे! वैज्ञानिक तो वह होता है जो प्रयोग करने पर ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचता है । विज्ञान के क्षेत्र में तो धर्म के क्षेत्र की तरह वैज्ञानिकों को यह रटाया जाता है कि भगवान नहीं होता, धर्म नहीं होता, कोई अदृश्य शक्ति नहीं होती तथा केवलमात्र पदार्थ ही होता है । कई दशकों से तो विज्ञान भी पदार्थ की गहराई में जाकर यह सिद्ध कर चुका है कि पदार्थ की कोई सत्ता नहीं है अपितु भगवान (ऊर्जा) की ही सत्ता है । ये वैज्ञानिक है कि अठारहवीं-उन्नीसवीं शदी की ही वैज्ञानिक खोजों पर अटके हुए हैं ।
तो ‘विज्ञान’ अपनी खोजों एवं उपलब्धियों से बाहरी संसार को भौतिक सुख-सुविधाएं प्रदान करे तथा फिर ‘दर्शन-शास्त्र’ को कह दे कि लो भाई अब आप अपना काम कीजिए । यानि कि बाहरी सुख-सुविधाएं हमने जुटा दीं, अब भीतरी तृप्ति व संतुष्टि आप एकत्र कीजिए । लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है । सर्वत्र ‘विषयों’ का चिंतन तो खूब चल रहा है लेकिन ‘विषयी; की तरफ किसी का ध्यान शायद ही जाता होगा । कोई थोड़ा-बहुत ध्यान देता भी है तो उसे पुराजंद थी एवं अंधविश्वासी कहकर उसकी उपेक्षा कर दी जाती है। इस ‘दर्शन-शास्त्र’, ‘धर्म’, ‘नीति’, ‘योग’ व अध्यात्म की घोर उपेक्षा करने के पीछे राजनेताओं, वैज्ञानिकों एवं धर्म का व्यापार करने वालों तथा साम्यवादियों का गहरा स्वार्थ एवं षड्यंत्र भी है । विज्ञान की तरह इस क्षेत्र को भी व्यापार बना देने को उत्तेजित ऐसे काफी राजनेता, धर्मगुरु, योगाचार्य व मनोवैज्ञानिक तथा योगाचार्य यह चाहते हैं कि यदि इसी तरह से असंतुलित विकास चलता रहा तो उनकी दुकानें भी भलि तरह से चलती रहेंगी । आखिर डाॅक्टर की दुकान, बिमारों पर, वकीलों की दुकान झगड़ों पर, गुरुओं की दुकान बुद्धूओं पर ज्ञानियों की दुकान अज्ञानियों पर तथा व्यवसायियों की दुकान उपभोक्ताओं पर ही तो चलती है । ‘दर्शन-शास्त्र’ की समकालीन युग में घोर उपेक्षा के पीछे ये उपर्युक्त लोग भी हैं ।
सच्चे गुरु, ज्ञानी, आचार्य, विज्ञान, चिकित्सक, राजनेता व व्यवसायी तो चाहेंगे कि लोग भीतर व बाहर दोनों तरफ से समृद्ध व तृप्त हों । परंतु ऐसे सच्चे गुरु, ज्ञानी, आचार्य, विज्ञानी, चिकित्सक, राजनेता व व्यवसायी सदैव से कुछ ही होते आए है । इनमें से अधिकांश तो भेष किसी अन्य का ओढ़े रहते हैं तथा वास्तव में होते कुछ अन्य ही हैं । तो ‘दर्शन-शास्त्र’ जैसे सर्वाधिक प्राचीन, सर्व-विषयों के पिता तथा बाह्य व भीतरी जीवन को समृद्ध बनाने में सक्षम विषय के दुश्मन ‘विज्ञान’ आदि विषय तो हैं ही, इसके साथ-साथ इसके समर्थक व रक्षक कहे जाने वाले भी इसकी नैया को डुबाने में पीछे नहीं है । आज टी॰ वी॰ के कई चैनलों पर दिन-रात ‘योग’ के संबंध में प्रवचन झाड़ने वाले या सनातन भारतीय आर्य हिंदू सभ्यता व संस्कृति पर दिन-रात अपनी मनमोहक वाणी से लोगों के दिलों पर राज करने वाले या लाखों लोगों की भीड़ कभी भी जमा करके कथा-वाचन करने वाले कथाकार या लाखों चेलों के गुरु ‘दर्शन-शास्त्र’, ‘योगा साधना’ व अध्यात्म को भारत में उचित स्थान क्यों नहीं दिलवा पाए हैं? सही बात यह है कि वे वास्तव में ऐसा करना चाहते ही नहीं हैं । उन्हें तो बस डाॅक्टरों, वकीलों आदि की तरह अपनी दुकानें ही भलि तरह से चलानी है । जागो भारत! जागो!! सही जीवन-शैली व कुछ वास्तवकि कर-गुजरने की आग अपने भीतर रखने वाले व्यक्तियों को आगे आना ही होगा । जिस तरह से तथाकथित बुरे लोगों में एकता होती है, उसी तरह से अच्छे व्यक्तियों को भी एकता से कार्य करना ही होगा । ‘विज्ञान’ व ‘दर्शन-शास्त्र’ तो गाड़ी के दो पहियों की तरह या व्यक्ति के दो पैरों की तरह हैं । गाड़ी के दोनों पहिए तथा व्यक्ति के दोनों पैर यदि सही-सलामत होंगे तो ही गाड़ी व व्यक्ति सही तरह से गति पर पाएंगे । अन्यथा तो दुर्गति, अव्यवस्था, मारामारी, तनाव, चिंता, बदले की भावना, आपाधापी एवं उपद्रव व युद्ध होते ही रहेंगे । बिमारी को ठीक करने हेतु सही चिकित्सा करनी होगी, केवल दिखावा करने या लीपापोती से काम नहीं चलेगा । संतान इतनी बड़ी कभी नहीं होती कि वह अपने माता-पिता से बड़ी हो जाए- इसी तरह अन्य विषय कितनी भी तरक्की कर लें लेकिन वे ‘दर्शन-शास्त्र’ से बड़े नहीं हो सकते । पदों, कुर्सियों, गद्दियों एवं साधनों पर जहरीले सांपों की तरह कुंडलियों मारे समर्थ लोग शायद ही कभी हकीकत को समझ पाएं – इसकी चिकित्सा यही है कि दबे-कुचले, अभावग्रस्त, अधिकारहीन, उपेक्षित लेकिन प्रतिभावान, जमीन से जुड़े लेकिन दयनीय हालत को प्राप्त लोगों को कुछ ज्यादा ही उग्र, उत्तेजित, सचेत एवं होशपूर्ण होना होगा । एकांगी विकास से छुटकारा होकर ‘दर्शन-शास्त्र’ विषय को केवल तभी ही उचित स्थान सम्मान मिल पाना संभव हो सकेगा। चुप बैठ जाना कायरता है । इससे तो केवल अनधिकारियों एवं दुष्ट-प्रवृत्ति वालों को बढ़ावा ही मिलता है । तो जागो भारत जागो ।।
एक तरह से राजनेताओं, धर्मगुरुओं, पुरोहितों, वैज्ञानिकों एवं अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों ने दुनिया को (विशेषकर भारत को) गुलाम बनाकर रखा हुआ है । एक नए तरह की गुलामी है यह । पूर्वकाल में भारत को केवल एक विदेशी अंतर्राष्ट्रीय कंपनी ‘ईष्ट इंडिया’ ने गुलाम बनाकर रखा हुआ था लेकिन अब तक यहां भारत में करीब चार हजार ऐसी कंपनियां हैं जो जमकर यहां का माल लूट रही हैं । ऐसी कंपनियों ने भारतवासियों के खान-पान, रहन-सहन, दिनचर्या, मनोरंजन को अपने कब्जे में लेकर यहां के लोगों की सेहत, चरित्र व आचरण को भ्रष्ट करके रख दिया है । 1947 ई॰ के पश्चात् शासन करने वाली सरकारों ने इन कंपिनयों को खूब खुली छूट दी तथा स्वयं भी खूब इस समृद्ध राष्ट्र को लूट-लूटकर धन को विदेशी बैंकों में जमा करवाया । इन्हें भारत, भारतीयता, भारतीय सभ्यता, भारतीय संस्कृति, भारतीय जीवन-मूल्यों तथा भारतीय-दर्शन से कोई लेना-देना नहीं है । यहां की अधिकांश सरकारें यहां पर अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों की तरह कार्य कर रही हैं । यदि ‘दर्शन-शास्त्र’ में वर्णित जीवन-मूल्यों, दिनचर्या, चरित्र, आचरण, आहार-विहार, चिकित्सा आदि पर ये चलें तथा अन्यों को भी ऐसे ही चलने को प्रेरित करें तो फिर भारत में इनकी यह लूट का नंगा नांच कैसे चलेगा? यहां पर सब कुछ पूर्ववत् अंग्रेजी-शासन के अनुसार ही चल रहा है । सत्ता अंग्रेजों के हाथ से निकलकर भारतीयों के हाथ में आई तो सत्ता का हस्तांतरण जरूर हुआ लेकिन व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं हुआ । अंग्रेजों वाली दुष्ट व्यवस्था भारत में अब तक चल रही है ।
एक और भारतीयों की मूढ़ता का अवलोकन कीजिए । आज भी भारतीय विश्वविद्यालयों में ‘दर्शन-शास्त्र’ विषय की मुख्य पुस्तकें ‘आंग्ल-भाषा’ में मिलती हैं । इसी बात को एक अन्य रूप में यदि कहना चाहें तो यह कह सकते हैं कि ‘आंग्ेल-भाषा’ में लिखी पुस्तकों को प्रामाणिक माना जाता है । हमारे भीतर पाश्चात्य विद्वानों ने एवं वहां के सत्तालोलुप राजनेताओं ने इतनी हीन-भावना से भर दिया कि आज भारत में भारतीय भाषाओं में लिखी पुस्तकें नहीं अपितु आंग्ल-भाषा मंे लिखी पुस्तकें ही लोकप्रिय हैं । आंग्ल-भाषा में लिखा हुआ कूड़ा भी वैज्ञानिक है जबकि भारतीय भाषाओं में लिखी गई उत्कृष्ट एवं वैज्ञानिक पुस्तकें भी व्यर्थ समझी जाती हैं । ‘दर्शन-शास्त्र’ पर लिखी पुस्तकों में (आंग्ल-भाषा) डाॅ॰ राधाकृष्णन, डाॅ॰ एस॰ एन॰ दासुगुप्त, डाॅ॰ हिरियन्ना, मैक्समूलर, ग्रिफिथ, राॅथ, मैक्डोनल, विलियमजों से दयाकृष्ण, दत्त एवं चट्टोपाध्याय आदि की पुस्तकें प्रामाणिक एवं पाठ्यक्रम के दृष्टिकोण से सही मानी जाती है। जबकि वास्तविकता यह है कि इन द्वारा लिखित पुस्तकें अधिकांश में कल्पनापूर्ण उल्लेखों, कल्पित व्याख्याओं मनधडंत दृष्टिकोणों, भेदभावपूर्ण विवरणों एवं मनमानी विचारधारा से भरी हुई है । इनकी तथा इन जैसे अन्य लेखकों की पुस्तकें भारतीय संस्कृति, भारतीय-दर्शन, भारतीय जवन-मूल्य, आचरण एवं चरित्र को दुषित एवं भ्रष्ट करने हेतु ही हैं । महर्षि दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, श्री अरविंद, सावरकर, गुरुदत्त, विद्यानंद सरस्वती, बैद्यनाथ शास्त्री आदि की पुस्तकों को जान-बूझकर उपेक्षित छोड़ दिया गया है । हमारे समस्त विश्वविद्यालयों के अधिकांश शिक्षक अपनी जमीन से उखड़ चुके हैं तथा चिंतन, विचारधारा एवं विचार में लगभग गुलाम है। । आज भी गुलाम हैं हम । हमारे वरिष्ठ शिक्ष्ज्ञक जमीनी हकीकत से दूर विदेशी सोच की गुलामी में उलझे हुए हैं । यह उसी सुकरांत, प्लेटो व अरस्तू की सोच का हिस्सा है जिसके अंतर्गत वे नारी में आत्मा भी नहीं मानते थे । ये तीन महान दार्शनिक माने जाते हैं लेकिन इनकी विकृत व भेदभावपूर्ण सोच के दर्शन इनकी विचारधारा से हो जाते हैं । कहां भारत में नारी को पुज्यनीय मानने की सनातन परंपरा तथा कहां पश्चिम की नारी में आत्मा भी न मानने की सोच? भारत की रक्षा भारतीयता को अपनाने से होगी, जमीन से जुड़ने से होगी तथा ‘भारतीय-दर्शन’ को स्वीकार करने से होगी । जागो भारत! जागो ।।
विज्ञान से अपने भौतिक जीवन को समृद्ध बनाकर अपने आंतरिक जीवन को ‘दर्शन-शास्त्र’ के माध्यम से आनंदपूर्ण बनाएं । यही और यही आज के भारत की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण जरूरत है । इसे हम जितनी जल्दी समझ जाएं, उतना ही जल्दी हमारा कल्याण होना संभव हो सकेगा । विदेशी उधारी सोच की गुलामी से बाहर निकलें तथा अपनी कूपमंडकता का त्याग करके अपने वैज्ञानिक एवं जमीन से जुड़े तथा निकले ‘दर्शन-शास्त्र’ का सम्मान करें । किसी भी प्रकार की गुलामी में विकास होना कभी भी संभव नहीं है, यह तथ्य पढ़े-लिखे हमारे विश्वविद्यालय के लोगों को जितनी शीघ्रता से समझ में आ जाए उतना ही अच्छा है । ‘विज्ञान’ की अंधी दौड़ तथा ‘दर्शन-शास्त्र’ की घोर उपेक्षा से केवल विनाश ही निकला है तथा आगे भी ऐसा ही हो सकता है । इस अपनी धरा को यदि हमें बचाना है तो अधूरे विकास की पश्चिमी अवधारणा से छूटकारा पाकर बहु-आयामी विकास की सनातन भारतीय आर्य हिंदू दर्शन-शास्त्र की अवधारणा को स्वीकार करना ही होगा । विज्ञान का जीवन यानि बाहरी जीवन अधूरा जीवन है । भीतर भी तो झांकें। अहम् को तो बहुत देख लिया, अव अहम् से पार जाकर अपने ‘स्व’ की भी अनुभूति करें । ‘पदार्थ’ से ‘चेतना’ की तरफ भी गति करें । पदार्थ से तो क्षणिक सुख ही मिल सकता है । ‘चेतना’ में उतरें तथा अखंड व शाश्वत् आनंद की अनुभूति करें । विज्ञान की उपेक्षा न करें अपितु इसकी सीढ़ी बनाएं । विज्ञान भी सही है तथा जो विज्ञान से पार है, वह भी सही है ।
आचार्य शीलक राम
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र (हरियाणा)
अध्यक्ष
आचार्य अकादमी चुलियाणा, रोहतक (हरियाणा)