दर्शनशास्त्र की मौत (Death of Philosophy)
पिछले कुछ समय से प्रति वर्ष नवंबर महीने के तीसरे वीरवार को ‘विश्व दर्शनशास्त्र दिवस’ मनाया जाता रहा है!इस वर्ष 2024 में इक्कीस नवंबर को ‘युनैस्को’ की तरफ से ‘विश्व दर्शनशास्त्र दिवस’ के रूप में मनाया गया!आज सर्व -विषयों के आदि मूल विषय दर्शनशास्त्र, दर्शनशास्त्र -विभागों तथा दर्शनशास्त्र विषय से संबंधित विभिन्न सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं के लिये यह चिंतन, मनन, विचार, विश्लेषण का अवसर है कि आजादी के सात दशक पश्चात् भारतीय विश्वविद्यालयों में यह विषय मरणासन्न,गैर जरूरी और बेरोजगारी का पर्याय क्यों और कैसे बन गया है? इसके लिये कौन जिम्मेदार है? यह किसने किया है?विदेशी जीवन-शैली के बोझ तले कराहती हुयी हमारी राजनीतिक, प्रशासनिक, शैक्षणिक और वैचारिक दुरावस्था इसके लिये जिम्मेदार है ? या फिर हमारे निठल्ले, नाकारा, नाकाम और आजीविका भोगी शिक्षक इसके लिये जिम्मेदार हैं? या हमारे धर्मगुरु,धार्मिक प्रचारक, कथाकार,संत,योगी,मुनि और सुधारक इसके लिये जिम्मेदार हैं? या फिर हमारा उच्छृंखल उन्मुक्त पाश्चात्य जीवन- शैली का अंधानुकरण इसके लिये जिम्मेदार है? आज के दिन उपरोक्त सभी प्रश्नों पर विचार विमर्श करके समाधान तलाश करके उन्हें जमीनी धरातल पर लागू करने की आवश्यकता है!
वर्ष में केवल एक दिन औपचारिकता निभाने के लिये इस प्रकार के आयोजन करना स्वतंत्र वैचारिकी से नाक -भौं सिकोडने वाले लकीर के फकीर सुविधाभोगी तथाकथित शिक्षकों के लिये चोंचले,क्षणिक रोमांच और अपने उच्च- अधिकारियों को प्रश्न करने के लिये किसी विभागीय एक्टीवेटी से अधिक नहीं होते हैं!बस, इस बहाने उदरपूर्ति के लिये कुछ खाना -पीना भी हो जाता है! मन में कुछ तसल्ली हो जाती है कि हमने भी कुछ किया है!
भारत सहित वैश्विक पटल पर मेहनतकश जनता -जनार्दन के मध्य व्याप्त विषमता,विफलता,गरीबी,अभाव, बेरोजगारी,तनाव, अकेलेपन,आतंकवाद और युद्ध के काल में सामाजिक भेदभाव को दूर करने को इस वर्ष के दर्शनशास्त्र दिवस को समर्पित किया गया है! युनैस्को सहित विभिन्न वैश्विक संस्थाएं एक तरफ तो खुद उपरोक्त समस्याओं को बढ़ावा दे रही हैं तथा दूसरी तरफ सामाजिक भेदभाव को समाप्त करने का ढोंग कर रही हैं!उपेक्षित और मरणासन्न दर्शनशास्त्र विषय को अन्य विषयों की तरह यथोचित सम्मान आज तक क्यों नहीं मिल पाया है? यह हमारी चर्चा, चिंता और कार्यनीति का केंद्र होना चाहिये!
यहाँ तो हमारे नेताओं के हालात ऐसे बन चुके हैं कि जब उन्हें वोट चाहियें तो हिन्दू बना देते हैं लेकिन चुनाव होने के बाद वोट देने वाले उन्हीं हिंदुओं द्वारा ज्योंही जमीनी समस्याओं को उठाया जाता है तो पिछवाड़े पर लाठियां,छाती में गोलियां और कानून से जेल की सलाखें मिलती हैं! यही है भारतीय लूटतंत्र की वास्तविकता!इनको इतना भी मालूम नहीं है कि विचार स्वातंत्रय सनातन भारतीय दर्शनशास्त्र की सर्वप्रथम और सर्वप्रमुख विशेषता है! इन्हें न तो उपनिषदों के अध्यात्म का ज्ञान है, न षड्दर्शन के पूर्व पक्ष और उत्तर पक्ष का ज्ञान है, न श्रीमद्भगवद्गीता का श्रीकृष्ण अर्जुन संवाद याद है, न अष्टावक्र गीता का ज्ञान है, न योग वाशिष्ठ का ज्ञान है, न षड्दर्शन पर किये गये सैकड़ों भाष्य ग्रंथों का ज्ञान है, न ब्रह्मसूत्र पर विभिन्न वादों का ज्ञान है, न भौतिकवाद व्यवहारिक चार्वाक,आजीवक, संजय वेलट्टिपुत्त,मक्खली गौशाल, प्रक्रुध कात्यायन,वात्स्यायन आदि के दर्शनशास्त्र का ज्ञान है! बस, अपने निहित स्वार्थ के लिये जनमानस का माईंडवाश करते रहते हैं! भारतीय दर्शनशास्त्र का इन्होंने बहुत अधिक अहित किया है!
नयी शिक्षा-नीति में तार्किक सोच को बढ़ावा देने का बार बार जिक्र हुआ है! लेकिन इन्हें यह कौन बतलाये कि नवयुवा छात्र- छात्राओं में तार्किक सोच का विकास केवल मात्र दर्शनशास्त्र विषय से ही हो सकता है? जिनकी सत्ता के गलियारों में पहुँच है, वो वरिष्ठ दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर पता नहीं क्या कर रहे हैं? वो समझाते क्यों नहीं हमारे शिक्षाशास्त्रियों, नीति- निर्माताओं, नेताओं और धर्माचार्यों को कि तार्किक सोच का विकास दर्शनशास्त्र विषय के अध्ययन अध्यापन शोध आदि से ही हो सकता है!केवल एक दिन के लिये दर्शनशास्त्र दिवस मनाने से कुछ नहीं होनेवाला है! हरियाणा राज्य में तो हालत यह है कि यहाँ के विभिन्न राजनीतिक दलों और सत्ताधारी दल के विधायकों, सांसदों, मंत्रियों और मुख्यमंत्री तक को यह पता नहीं है कि दर्शनशास्त्र नाम का भी कोई विषय होता है! दर्शनशास्त्र का नाम सुनते ही मुंह बिचकाने लगते हैं और बडी बेरुखी से कहते हैं कि यह भी कोई विषय होता है? हरियाणा में महाविद्यालयों और एकमात्र विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर की भर्ती हुये शायद 23-24 वर्ष हो चुके हैं!जब पढाने वाले ही नहीं होंगे तो दर्शनशास्त्र विषय को कोई विद्यार्थी क्यों चयन करेगा? बाकी इस विषय में रोजगार शून्य है! यह भी इस विषय के गर्त में जाने का एक कारण है!
जहाँ तक विद्यार्थियों में तार्किक सोच का विकास करने की बात है, यह कोरा दिखावा है! राजनीति सत्ता, मजहब सत्ता, न्याय सत्ता, धन सत्ता और प्रशासन सत्ता को तार्किक सोच के भारतीय चाहिये ही नहीं! उन्हें तो केवल जी हुजूरी करने, हाँ जी- हाँ जी करने ,चापलूसी करने और चरण वन्दना करने वाले लोटपोटूओं की जरूरत है! ज्यों ही कोई तार्किक सोच का प्रयोग करेगा तो सर्वप्रथम वह अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिये आवाज उठायेगा!रोजगार, शिक्षा,आवास, बिजली, पानी,चिकित्सा और फसलों के उचित भाव के लिये आवाज उठाने वालों के साथ कैसे दुर्व्यवहार किया गया था, यह पूरा विश्व जानता है! अधिकारों के लिये आवाज उठाने वालों को पाकिस्तानी, खालिस्तानी और देशद्रोही कहकर उनकी जबान को बंद करना सत्ताधारियों को बखूबी आता है! तो यह तो भूल ही जाईये कि भारत में कोई नेता, धर्माचार्य, पूंजीपति, उच्च अधिकारी, सुधारक आदि तार्किक सोच को महत्व देना चाहेगा! जनमानस को गुलाम और दास बनाने के लिये सर्वप्रथम उसकी तार्किक सोच को ही समाप्त करना पड़ता है!नेता और धर्माचार्य ही नहीं अपितु साम्यवादी सत्ता तक में भी यही हुआ है!
सृष्टि में सर्वप्रथम दर्शनशास्त्र विषय के अंतर्गत तार्किक सोच के बीज वेदों में निहित ‘नासदीय सूक्त’ और ‘पुरुष सूक्त’ में उपलब्ध होते हैं!यह निसंकोच कहा जा सकता है कि दर्शनशास्त्र के अंतर्गत तार्किक सोच का मानवता के लिये सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान धनबल,सत्ताबल और मजहब बल द्वारा फैलाये जा रहे पाखंड, ढोंग, शोषण, दिखावे और लूटखसोट के खात्मे और अपने मूलभूत अधिकारों की प्राप्ति के लिये है! शायद इसीलिये जानबूझकर उपरोक्त प्रभावी लोग तार्किक सोच को बढावा देने वाले दर्शनशास्त्र जैसे विषय को समाप्त करने पर उतारु हैं!जिनको भी सत्ता मिल जाती है, वही मेहनतकश जनमानस पर धींगामस्ती करना शुरू कर देता है!दर्शनशास्त्र- विभागों के प्रमुखों तक में यह महामारी फैली हुई है!इनमें खुद ही तार्किक सोच का टोटा है तो फिर ये अपने विद्यार्थियों में तार्किक सोच का विकास क्या खाक करेंगे? कम या अधिक सभी दर्शनशास्त्र के शिक्षक वैचारिक संकीर्णता का शिकार होकर बुद्धिवाद, अनुभववाद, समीक्षावाद, तार्किक अणुवाद,अस्तित्ववाद, नारीवाद,रोमांचवाद, परमाणुवाद, विकासवाद, सृष्टिवाद,उच्छृंखल भोगवाद, साम्यवाद, समाजवाद, ईश्वरवाद, निरिश्वरवाद, यदृच्छावाद, कर्मवाद,अनिश्चयवाद, वास्तववाद,शून्यवाद, विज्ञानवाद आदि की एकतरफा भुलभूलैया में उलझे पडे हैं!
भारत में दर्शनशास्त्र से जुड़े हुये पूर्व राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन जैसे व्यक्ति बडे -बडे पदों पर आसीन होकर भी इस विषय के कल्याणार्थ कुछ रचनात्मक क्यों नहीं कर पाये, यह भी एक अलग से शोध का विषय है!इस पर भी गहनता से निष्पक्ष मंथन किये जाने की आवश्यकता है! यदि इनके पास कुछ क्रांतिकारी और रचनात्मक करने का संकल्प और इच्छाशक्ति होती तो बहुत कुछ कर सकते थे!
भारतीय विश्वविद्यालयों के दर्शनशास्त्र -विभागों में आजादी से पहले और इसके बाद संदर्भ के रूप में पढे जाने वाली सर्वपल्ली राधाकृष्ण,एस.एन. दासगुप्ता, जदूनाथ सिन्हा,चंद्रधर शर्मा,राहुल सांकृत्यायन,उमेश चंद्र, रामनाथ शर्मा,जगदीश चंद्र मिश्र,याकूब मसीह,बलदेव उपाध्याय,दयाकृष्ण, देवीप्रसाद, गैरोला, हिरियन्ना तथा पाश्चात्य मैक्समूलर, डायसन, कीथ, वैबर,राथ,जैकोबी, गार्बे, रीज डैविड, श्री मती रीज डैविड, ओल्डनबर्ग, सुजूकी, सोजेन चार्ल्स इलियट, बार्थ, ब्लूमफील्ड, होपकिंस, कोलब्रुक, बूहलर, फर्क्यूहर आदि की पुस्तकों में सनातन भारतीय दर्शनशास्त्र का सत्य,तार्किक, जमीनी,निष्पक्ष,पूर्वाग्रहमुक्त पक्ष बिलकुल गायब है! इन्होंने भारतीय शिक्षा- संस्थानों में दर्शनशास्त्र विषय के प्रचार और प्रसार हेतु कभी भी रचनात्मक प्रयास नहीं किया!बस, अपनी प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा के लिये काम करते रहे!समकालीन युग में स्वामी दयानंद द्वारा स्थापित तार्किक संस्था आर्यसमाज ने अकेले ही भारतीय दर्शनशास्त्र पर पचासों मौलिक विचारक दिये हैं!उन्नीसवीं सदी में शस्थापित किसी भी संस्था ने यह काम नहीं किया! आर्यसमाज ने स्वामी दर्शनानंद, आर्यमुनि,उदयवीर शास्त्री,गुरुदत्त,आचार्य बैद्यनाथ शास्त्री,आचार्य प्रशांत, जयदेव विद्यालंकार, रामचंद्र देहलवी,स्वामी विद्यानंद,युधिष्ठिर मीमांसक, ब्रह्मदत्त जिज्ञासु,प्रो. सुरेन्द्र कुमार, आचार्य अग्निव्रत जैसे मौलिक विचारक प्रदान किये हैं! लेकिन विडम्बना है कि दर्शनशास्त्र- विभागों में इन विचारकों की पुस्तकों को कोई महत्व नहीं दिया जाता है!आजकल खुद आर्यसमाजी भी तार्किकता को खोकर पौराणिक अंधभक्त बनते जा रहे हैं!यशदेव शल्य विश्वविद्यालयीन शिक्षा से दूर रहने के कारण अपनी मौलिक प्रतिभा को बचाकर रख सके! इनकी कृतियों के अध्ययन से यह आभास होता है!
भारतीय दर्शनशास्त्र पर पाश्चात्य लेखकों द्वारा लिखित विपुल साहित्य एक मिशनरी साजिश का हिस्सा है! मूढता देखिये कि भारतीय दर्शनशास्त्र का अकादमिक जगत् इस सच्चाई को आज भी स्वीकार करने से परहेज कर रहा है!पाश्चात्य सोच के गुलाम विचारक आज भी इस गलतफहमी का शिकार हैं कि भारत में कभी कोई दर्शनशास्त्र रहा ही नहीं है!इनके मत से यहाँ तो केवल सांप, सपेरे, नट, जादू, टोना,पशुबलि, मूर्ति पूजा, झाडफूंक करने वालों का प्राधान्य रहा है! जयपुर दर्शन प्रतिष्ठान से प्रकाशित ‘उन्मीलन’ पत्रिका को छोडकर दर्शनशास्त्र विषय को केंद्रित करके भारत में कोई भी स्तरीय शोध-पत्रिका मौजूद नहीं है!और तो और दर्शनशास्त्र की अखिल भारतीय अकादमिक संस्था पर या तो पूरी तरह से पाश्चात्य सोच और भाषा हावी है या फिर उस पर कुंडली मारे बैठे वरिष्ठ शिक्षक केवल सरकार ग्रांट पर सैर-सपाटे करने या फिर औपचारिकतावश गोष्ठियाँ या कांफ्रेंस करने को ही अपना कर्तव्य समझते हैं!अधिकांशतः केवल अंग्रेजी भाषा में संपादित पुस्तकें प्रकाशित करने तथा परस्पर एक दूसरे की पुस्तकों को पुरस्कृत करने के सिवाय इनको कुछ भी नहीं सूझता है! इन द्वारा संपादित और प्रकाशित महंगी पुस्तकों को जबरदस्ती करके दर्शनशास्त्र-विभागों में ठूंस दिया जाता है! इनको शायद ही कोई विद्यार्थी, शोधार्थी या शिक्षक पढता होगा!
भारतीय दर्शनशास्त्र पर आज तक हिंदी भाषा में कोई स्तरीय पढने-पढाने योग्य विश्वकोश उपलब्ध नहीं है! जबकि गुलामी के प्रतीक कार्ल पोटर और मैक्समूलर आदि द्वारा संपादित भारतीय दर्शनशास्त्र के विद्यार्थियों में हीनता की भावना भर देने वाला कूड़ा-कर्कट ‘सेकर्ड बुक्स आफ द इस्ट’ हर विश्वविद्यालय में उपलब्ध है! दिल्ली सहित भारत के विभिन्न शहरों में स्थित विभिन्न प्रकाशन संस्थान अब भी केवल अंग्रेजी भाषा में लिखी पुस्तकों को प्रकाशित करने पर गर्व महसूस करते हैं!
विश्वविद्यालयों के विभिन्न दर्शनशास्त्र- विभागों के वरिष्ठ शिक्षकों के बारे में यह कहावत प्रचलित है कि ये खुद दर्शनशास्त्र -विषय और दर्शनशास्त्र विभागों को मृतप्राय करने के लिये जिम्मेदार हैं!इन्हें दर्शनशास्त्र विषय को आगे बढाने,कक्षाएं लेने, स्तरीय शोध करने -करवाने, स्तरीय विश्लेषणात्मक पुस्तकें और शोध-आलेख लिखने तथा दर्शनशास्त्र विषय में कुछ क्रांतिकारी और अभिनव करने आदि से कोई मतलब नहीं है! इनका अधिकांश समय परस्पर टांग खिंचाई करने, राजनीति करने, पद हासिल करने, शोधकर्ताओं को हतोत्साहित करने तथा उच्च अधिकारियों की चापलूसी करने में ही व्यतीत होता है! तनख्वाह लाखों में लेकिन काम धेले का नहीं!ऐसे ही शिक्षक जब ‘फिलासफी डे’ मनाते हैं तो रोने के साथ पीड़ा होती है! जिनको मोटी तनख्वाह मिलती है वो काम नहीं करते तथा जो कम तनख्वाह के आजीवन ठेके के गुलाम शिक्षक होते हैं, वो अपमानित और प्रताड़ित होकर बंधुआ मजदूरों की तरह काम करते हैं!शिक्षक भर्ती में आयोजित साक्षात्कार देने के लिये यदि स्वयं स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानंद, आचार्य रजनीश, जिद्दू कृष्णमूर्ति और राधाकृष्णन् भी आ जायें तो उनको भी भर्ती के अयोग्य घोषित कर दिया जायेगा! जुगाडू, सिफारशी, मंदबुद्धि, बंदबुद्धि घोंचुओं को पिछले दरवाजे से भर्ती किया जा रहा है तथा प्रतिभाशाली योग्य युवाओं की उपेक्षा हो रही है!
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आचार्य शीलक राम
दर्शनशास्त्र- विभाग
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय
कुरुक्षेत्र- 136119