Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
18 May 2023 · 1 min read

दर्पण

मन दर्पण में झाँकिये,सुनिये अंतरनाद।
तेरे अंदर है मनुज,भरा हुआ अवसाद।।

नज़र चुराता सत्य से,दिखे न खुद में दोष।
भला जताता क्यों मनुज,मुझ दर्पण पर रोष।।

दर्पण दिखलाता वही, जो हो जिसके पास।
इसकी ऐसी खूबियाँ,करते सब विश्वास।।

दर्पण का मन शुद्ध है, सच्चाई है मीत।
जिसमें हरदम झाँकता, गुज़रा हुआ अतीत।।

दर्पण सबकुछ देखता,रहे मगर चुपचाप।
जैसे झीनी रोशनी,छनती अपने आप।।

रखना होठों पर हँसी, दर्पण जैसा साफ़।
दिल पर कोई चोट दे,कर देना तुम माफ।।
-लक्ष्मी सिंह
नई दिल्ली

Language: Hindi
220 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
Books from लक्ष्मी सिंह
View all
Loading...