दर्द ….
धुँधली आंखों से देख रही हूँ मै ,
क्या बदहाल हो गए हैं मेरे पहाड़ के….
हमने क्या नही किया इस पहाड़ के लिए,
जहां कभी सोना उगता था इस जमीन में ..
आज वहीं काँटे उग रहे हैं ।
जो संतान मिट्टी में खेलकर पली बड़ी हुई ,
आज उसी मिट्टी से वह घृणा कर रहा है ।
आँखे पथरा गयी अपनों की राह देखते-देखते
कोई तो आएगा.. साथ बैठेगा.. हमारा दुखड़ा सुनेगा
हमारी फिक्र होती है , चर्चाएं करते हैं..
लेकिन कभी हाल पूछने कोई नही आता ,
ये कंपकपाते हाथ , डगमगाते पैर..
स्वयं की दुर्दशा देखकर आँखे भर जाती हैं,
कण्ठ अवरुद्ध हो जाता है ..
क्या हुआ अगर सांस फूल रही है, कमर झुक गयी है …
लेकिन हम बेसहारा होकर भी जी रहे हैं …
क्योंकि हममें पहाड़ अभी भी जिंदा है ।
©®- अमित नैथानी ‘मिट्ठू’ { अनभिज्ञ }