दर्द कौम के लिए…
क्यूँ तुझे पसंद नहीं,
ये विद्रोही वजूद मेरा,
क्या ख़तरे में है,
मुझसे अस्तित्व तेरा ।
हवा के मानिंद,
आज मेरा ओज बढ़ रहा,
है तू बैचेन बहुत,
जैसे तेरा ग़ुरूर घट रहा ।
किए हैं लाख ज़ुल्म तूने,
पल-पल मेरी अस्मिताओं पर,
फ़िर आज क्यूँ रोना रो रहा,
तू अपनी समस्यायों का ।
अब न कोई कर सकेगा,
ज़ुल्म हम ईमानदारों पे,
जब उन्हें मिल जाएगा,
जबाब हमारी ज़ुबानों पे,
रख अपना ये तेज़ बचाकर,
वक़्त पर काम आएगा,
“आघात” खड़ा हो जा कौम को,
नहीं तो तू कल पछतायेगा ।