दर्द की शर्त लगी है दर्द से, और रूह ने खुद को दफ़्न होता पाया है….
वो वक़्त लौट आया है, जिससे कभी खुद को बचाया है,
रौशनी के लिहाफ़ में लिपटकर, अँधेरा फ़िर मुस्कुराया है।
शिकायत की थी पलों की, लो इल्ज़ामों का मौसम आया है,
मुहब्बत की आस जो जगी थी, उसे तोड़कर आंसुओं में बहाया है।
हाथ थामे थे राहों ने, फ़िर तन्हाईयों से दिल लगाया है,
धूमिल होने लगीं थी परछाईयाँ जो, अपने अक्स में जिन्दा होते उन्हें पाया है।
करवट ली थी संवेदनाओं ने, आज थपकियाँ देकर उन्हें सुलाया है,
गलतियां जाने किसकी थी, पर मूल्य हमने क्या खूब चुकाया है।
आंसुओं में डूबे जज्बातों को, कितनी मुश्किल से साहिल दिखाया है,
बाँट आया जो दिया अपनी रौशनी, उसकी थकान कौन समझ पाया है।
तुलनाओं के इस बबंडर में, चोटों का सैलाब सा आया है,
दर्द की शर्त लगी है दर्द से, और रूह ने खुद को दफ़्न होता पाया है।