दर्द की इंतहा
(यहां न बात धर्म की है ,न किसी विशेष जाति की ।
यहां तो बात है सिर्फ मासूम बच्चियों की इज्जत की ।
क्यों लाते हो बीच में मजहब और राजनीति को,
है हिम्मत तो दे दो “सबूत “अपने मर्द होने की)
कंठ है अवरुद्ध होठों पर भी लगे हैं ताले,
भुलाकर ईमान सिल गए हैं लवों के प्याले।।
हार रही है मानवता घुट रही है इंसानियत ,
हर पल क्यों दुर्योधन बन रहे युवा हमारे ।।
चीर हरण अस्मिता का एक खेल बन गया ,
अनगिनत बन गए हैं यहां धृतराष्ट्र बेचारे ।।
जोर आजमाइश का अब द्रौपदी पर नहीं ,
मासूमों पर बरस रहे हैं आज दहकते अंगारे।।
घोर कलयुग पनप रहा व्यभिचार के कूप में ,
तन के पुजारी बन रहे हैं आज बुद्धि के मारे ।।
देवियों के देश में हर पल अपमान होता है ,
यहां सिर्फ नवदुर्गा में कन्या पूजन होता है ।।
खोकर मूल्य अपनी संस्कृति के मानव रक्त रंजित हुआ ,
लगता है पाषाण युग में जी रहे हैं हम बेचारे।
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़