दरिंदे इस कदर हावी बिना मतलब के पहरे हैं ।
दरिंदे इस कदर हावी बिना मतलब के पहरे हैं ।
कुचलते रोज कलियां जो उन्ही के सर पे सहरे हैं ,
चलाकर बात फांसी की चढ़ा किसको दिया फांसी।
कहाँ है न्याय गुरबत को यहाँ सब गूंगे बहरे हैं।।
सतीश पाण्डेय
दरिंदे इस कदर हावी बिना मतलब के पहरे हैं ।
कुचलते रोज कलियां जो उन्ही के सर पे सहरे हैं ,
चलाकर बात फांसी की चढ़ा किसको दिया फांसी।
कहाँ है न्याय गुरबत को यहाँ सब गूंगे बहरे हैं।।
सतीश पाण्डेय