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11 Feb 2024 · 1 min read

दरिंदगी के ग़ुबार में अज़ीज़ किश्तों में नज़र आते हैं

धमाकों से फैली इस धुँध में
वो सर्दियों सी ठंडक नहीं होती
ज़िस्म और ज़ेहन – सभी जल जाते हैं
दस्तानों की ज़रूरत नहीं होती

इस धुँध के छटनें पर घास पे फैली
ओस की बूँदे नहीं
लहू के छींटे नज़र आते हैं

जब ढूँढते है अपनों को
तो इस दरिंदगी के फैले ग़ुबार में
तो बस अधजले जूते – टूटी चप्पलें –
कुछ बँद – खुली आँखें
लोगों की पहचान बदल जाती है

अपने अज़ीज़ तो बस टुकड़ों
और किश्तों में नज़र आते हैं

Language: Hindi
70 Views
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