दरिंदगी के ग़ुबार में अज़ीज़ किश्तों में नज़र आते हैं
धमाकों से फैली इस धुँध में
वो सर्दियों सी ठंडक नहीं होती
ज़िस्म और ज़ेहन – सभी जल जाते हैं
दस्तानों की ज़रूरत नहीं होती
इस धुँध के छटनें पर घास पे फैली
ओस की बूँदे नहीं
लहू के छींटे नज़र आते हैं
जब ढूँढते है अपनों को
तो इस दरिंदगी के फैले ग़ुबार में
तो बस अधजले जूते – टूटी चप्पलें –
कुछ बँद – खुली आँखें
लोगों की पहचान बदल जाती है
अपने अज़ीज़ तो बस टुकड़ों
और किश्तों में नज़र आते हैं