*दरवाजा (कहानी )*
दरवाजा (कहानी )
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सड़क पर मोबाइल से बातें करते करते मैं चलता चला जा रहा था । अपने ही ख्यालों में खोया हुआ था। मुझे यह भी पता नहीं चला कि सड़क पर कब एक मोड़ ऐसा आ गया, जिसमें एक सुंदर सा दरवाजा जो कम से कम 50 फीट ऊँचा लकड़ी का बना हुआ होगा ,खूबसूरत शिल्प का नमूना और मैं जैसे ही उस दरवाजे के पास पहुँचा, दरवाजा अपने आप खुल गया और मैं उस दरवाजे से भीतर चला गया।
मेरे भीतर जाते ही दरवाजा अपने आप बंद हो गया । अंदर का दृश्य बहुत ही मनोहारी था । बिल्कुल कोई परी लोक की कथाओं जैसा । एक बड़ी सी नहर थी। जिस में राजा साहब नाव पर सवार होने जा रहे थे। मुझे देखते ही कहने लगे “आप भी आइए ! ”
मैं हिचकिचाया। मैंने कहा” मैं क्यों ? ”
वह बोले “आप हमारे अतिथि हैं ।आप का सर्वप्रथम अतिथि के नाते आगमन स्वागत के योग्य है ।”
उनका आग्रह स्वीकार करके मैं उनके पास नाव में जाकर बैठ गया । धीरे-धीरे नाव चलने लगी । राजा साहब नाव में ही चारों तरफ घूम रहे थे । नाव के थोड़ा आगे बढ़ते ही कुछ लोग ढपली बजा- बजाकर कुछ गा रहे थे । मेरी समझ में उनके शब्द तो नहीं आए ,लेकिन हाँ उनके गायन में उल्लास, उमंग और उत्साह भरपूर था। राजा साहब ने 500 के नोटों की गड्डियां उन सब गायकों को प्रदान कीं। मेरी आँखें फटी की फटी रह गई। अरे वाह ! इतना पैसा !
फिर थोड़ा आगे जब बढ़े , तो एक अखाड़ा चल रहा था। जिसमें दंगल था। पहलवान कुश्ती लड़ रहे थे और तरह-तरह के दाँवपेच आजमा रहे थे । मैंने महसूस किया कि राजा साहब इस दाँवपेच से पूरी तरह परिचित हैं। नाव थोड़ी देर कुश्ती देखने के लिए रुकी रही । राजा साहब ने यहाँ पर भी भरपूर धनराशि पहलवानों को प्रदान की। थोड़ा दूर आगे बढ़ने पर बहुत सुंदर गिफ्ट सेंटर जैसी एक बड़ी दुकान थी ,उसमें अद्भुत वस्तुएँ प्रदर्शनी के लिए लगी हुई थीं। लोग खरीदारी कर रहे थे और कुछ इस प्रकार से उस दुकान को सजाया गया था कि लोग खरीदारी भी करते रहे और राजा साहब उस दृश्य का आनंद अपनी नाव पर बैठे-बैठे लेते रहें। राजा साहब ने नाव पर बैठे-बैठे ही खरीदारी के लिए कुछ वस्तुएँ निश्चित कर दीं। उनके साथ चल रहा उनका स्टाफ उन वस्तुओं को धनराशि देकर एक ट्रक में भरता जा रहा था ।
थोड़ा आगे चलने पर मैंने देखा कि दस- बारह फीट ऊँचा एक पत्थर जमीन पर ऊंचाई के साथ स्थापित किया गया था। पत्थर चिकना था और उसमें फिसलन थी। पत्थर के ऊपरी हिस्से पर पचास हजार रुपये की नोटों की एक थैली लटकी हुई थी। एक-एक करके लोग उस फिसलन पर चढ़कर रुपयों की थैली प्राप्त करने का प्रयत्न कर रहे थे मगर फिसलन पर फिसलते जा रहे थे और गिरते जा रहे थे । इस खेल में जनता को भी आनंद आ रहा था तथा राजा साहब भी बहुत प्रसन्न हो रहे थे। मुझे भी यह खेल बहुत अच्छा लगा। जनता के बीच में से सब लोग इस खेल में भाग नहीं ले पा रहे थे क्योंकि यह बहुत कठिन था। फिसलन पर सीधे चढ़ना बहुत कठिन इसलिए भी हो गया था क्योंकि कहीं कोई सहारा नहीं था। लेकिन फिर भी कुछ लोग पाँच – छह फिट तक चढ़ गए, जिस पर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ।
अंत में एक कवि सम्मेलन चल रहा था। यहाँ पहुंचकर राजा साहब ने नाव रोक दी ।कवियों की बड़ी सुंदर कविताएँ मंच पर पढ़ी जा रही थीं। राजा साहब के पधारने के पश्चात एक कवि को केवल दो मिनट का समय दिया जाता था और उसी में उसे अपना दोहा , मुक्तक अथवा एक कोई शेर प्रस्तुत करना होता था । यहाँ पर अद्भुत आनंद आया । संभवतः यह राजा साहब की रियासत के कवि और शायर थे ,जिनको सम्मान दिया जाता था । राजा साहब ने सब के गले में सोने के हार पहनाए । मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ । मैंने राजा साहब से पूछा “क्या यह सोने के हैं या पालिश के ?”
राजा साहब मुस्कुराते रहे । बोले “यह शुद्ध सोने के बने हुए हैं ।हमारी रियासत में सोना बिखरा हुआ है । लोग धनवान हैं । सब सुखी हैं ।सब निरोगी हैं। किसी को कोई कष्ट नहीं है । कहीं चोरी और डकैती नहीं होती। आप भी हमारी रियासत में आकर बस जाइए ।आपका स्वागत है।”
मैंने कहा “नहीं ! मुझे तो अपने घर जाना है ।मेरा घर कहाँ है ?”
राजा साहब बोले “कोई बात नहीं ।आप नाव से उतर जाइए ।उतरते ही आपका घर आ जाएगा ।”
फिर मैं नाव से उतरा और मेरे सामने फिर वही पुराना दरवाजा था, जिसमें से मैंने अंदर प्रवेश लिया था । मैं उस दरवाजे से बाहर चला गया । दरवाजा अपने आप बंद हो गया। मैंने देखा कि मेरा घर सामने ही नजर आ रहा था ।
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लेखक : रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 9997 615451