दरमियाँ अपने ये पर्देदारियाँ
जल रहीं जो याँ दिलों की बस्तियाँ
कब गिरीं इक साथ इतनी बिजलियाँ
बातियों में अब नहीं लज़्ज़त रही
अब बिगाड़ेंगी भला क्या आँधियाँ
अंजुमन भी किस तरह का अंजुमन
हों न गर तेरी मेरी सरगोशियाँ
जिस जगह भी मैं कभी आया गया
उस जगह कितनी हैं पहरेदारियाँ
गो के अब तक तो नहीं ऐसा हुआ
हैं बहुत ख़ामोश सी ख़ामोशियाँ
क्यूँ लुटा मैं दे रहीं इसका जवाब
किस अदा से आपकी बेताबियाँ
तब कहाँ थे आप मेरे ग़मग़ुसार
जब मुझे डंसती रहीं तन्हाइयाँ
निभ नहीं पाएँगी ग़ाफिल जी कभी
दरमियाँ अपने ये पर्देदारियाँ
-‘ग़ाफ़िल’