(( दरख्त ))
आज उस दरख्त की मीठी हवा , भी मस्तानी हो गयी ,
कल उस दरख्त के नीचे , कुछ पल ठहर गए थे वो ,,
रात गुस्से में उनसे , रूठ कर सो गई थी मैं ,
लड़ाई में भी सोते हुए ,मेरी ज़बी को चूम गए थे वो ,,
मैंने यू ही दिल्लगी में कह दिया के ,और भी है मेरे चाहने वाले ,
जो देखा गौर से तो , सर से पाव तक सिहर गए थे वो ,,
लोग मोहब्बत में हटा देते है , महबूबा का दुप्पटा अक्सर कांधे से ,
जो कभी मेरा दुप्पटा गिर जाये तो , मेरी चोटी से बांध गए थे वो ,,
खुद के लिए दो कदम चल पाना ,भी पहाड़ के जैसा हो जिसका ,
मेरी एक फरमाईश पे ,मिलो पैदल चल कर गए थे वो ,,
मेरे गुनगुनाने के शौक में कुछ , आरज़ू उनसे भी की साथ देने की ,
साथ इतना दिया कि पूरे मोहल्ले को , सर पे उठा कर गए थे वो