दरख़्त के साए में
दरख्त के साये में,
कभी-कभी रौशनी ‘झिलमिलाती है।
रास्ते का इक तन्हा वो दरख्त
जिसकी बूढ़ी टहनियों पर
कभी परिन्दों ने घर बनाएं
तो कभी घर उजाड़े भी हैं।
कभी तेज हवाओं ने
हरे पत्तों को तंग किया
तो कभी सुनहरे पत्तों को तोड़ा भी है।
कभी तूफान में,
राहगिर के लिए वह छत बना,
बारिश में बूँद-बूँद पीता रहा,
तो कभी आंधीयों संग मचलता भी है।
कभी यही दरख्त,
मुसाफिरों का हमराज़ भी है
किसी के किस्सों में,
चुपके से बतियाने वाला सरफराज भी है।
कभी अकबर के सरीखी ही
होने वाला ना – नुमाईश भी है,
तो कभी बदलते मौसम में
कई यातनाएं, यह दरख्त
सहता भी और पल-पल बढ़ता भी,
ऐसे ही हिम्मतों की मिसाल भी है।
पर अब वक्त के साथ-साथ
वह दरख़्त कमजोर हो चला
वक्त के साथ बूढ़ा हो चला
पत्तियाँ सुनहरी होकर सूख गई
टहनियां खूब बढ़कर टूट गई
हवाएं मचलती हुई उसे झुकाने लगी।
पर उसके आगोश में अभी भी कई यादें ठहरी हैं
मुसाफिरों की कई कहानियाँ अधूरी हैं,
जो कभी दोहराती हैं
तो उसके खोखले बदन में
छोटी सी एक हरियाली उभर आती है।
दरख्त के साये में,
कभी – कभी रौशनी झिलमिलाती है।