” दरकते पर्दे “
” दरकते पर्दे ”
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टूटते दरख्तो के मेले में,
कोई छूटता तो है ।
चली है बात करीने से,
तो कोई लूटता तो है ।।
भरा सागर जो नैनो में,
कभी फूटना तो चाहिए ।
घरौंदे पर पड़ा पर्दा जहां,
कोई वहां घुटता तो है ।।
फटे पर्दो के पीछे छिपी अस्मत,
जमाना झाकता तो है।
सिसकती जिंदगी अब गलिचों में,
कोई मांगता तो है।।
ना कोई सब्र की सीमा ,
ना कोई बांध होना चाहिए।
बीतते यौवन की कहानी,
दरख्तो में कोई ढूंढता तो है।।
बड़ी जिल्लत जमाने की,
गर्दन पे लटकी कोई तलवार तो है।
साजिश कर रहा हर कोई,
बचाएं कौन जमाना पूछता तो है।।
हर किसी का मुकम्मल जहां हो,
कोई तरकीब तो होनी चाहिए ।
भटकती जिंदगी अमावस में,
कोई उजाला मांगता तो है।।
जलाए दीप जीवन की कहां,
जगह वह कोई ढूंढता तो है ।
पहुंचे मंजिल पर जो कदम,
पता वो कोई पूछता तो है ।।
चला है कारवा तो बस,
मुकम्मल मुकाम होना चाहिए ।
दरख्तो की कतारों में लगा,
हर कोई कारवा ढूंढता तो है।।
सिसकती कहानी उन परिंदो की,
ना कोई जिनका घरौंदा है ।
उड़ते कदम मंजिल की ओर,
बसेरा कोई उनका ढूंढता तो है।।
पड़े जो नीव जीने की जहां में,
जमी वो कहीं तो होनी चाहिए ।
भटकते रास्तों को मिला दे जहां में,
कोई सड़क वो खोजता तो है ।।
पड़ी राहों में लाशें जिला दे उनको भी,
कोई महर वो ढूंढता तो है ।
ना पता जिंदगी का ना कोई ठिकाना,
पर कोई दुआ मांगता तो है ।।
माना कि कारवां मंजिल पर पहुंचे,
पर सफर शुरू होना तो चाहिए।
ना कोई मंजिल ना घरौंदा,
मुसाफिर बन बंजारा ठिकाना ढूंढता तो है ।
“”””””””सत्येन्द्र प्रसाद साह(सत्येन्द्र बिहारी)”””””””””